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________________ १४६ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके ठहर ठहरकर प्रवर्तना हेतु भी सिद्ध नहीं है स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे किसी भी पदार्थकी तिस प्रकार ठहर ठहरकर विराम लेते हुये प्रवृत्ति नहीं होती है द्रव्यार्थिकनयसे तो सम्पूर्ण पदार्थ सूर्य, चन्द्रमाके अविराम प्रकाश करनेके समान अविश्राम नित्य प्रवृत्ति कर रहे हैं । पुद्गल द्रव्यके रूप, रस, आदिक गुण नित्य ही काली, पीली, खट्टी, मीठी आदि पर्यायोंके धारनेमें प्रवर्त रहे हैं एक क्षणका भी अवकाश नहीं मिलता है । जीव द्रव्य सर्वदा जानना, अस्तिपन, वस्तुपन आदिमें अनवरत प्रवृत्ति कर रहा है । जीवकी पर्याय बढई सुनार, कुलाल, या पुद्गलकी पर्याय कुठार, हथौडा, चाक घूमना आदिके समान मध्यमें विराम लेते हुये प्रवृत्ति करना द्रव्योंमें नहीं है । चला दिये गये यंत्र ( मशीन ) के समान जिस ओर धुन बंध गयी उसमें द्रव्य सदा प्रवर्तते रहते हैं इस कारण उस स्थित्वा प्रवृत्ति हेतुकी भी असिद्धि हुई। पांचवां अर्थक्रियाकारित्व हेतु फिर द्रव्यसे भिन्न हो रही पर्यायके पाया जाता है । घट, पट, आदि पर्यायें जल धारण आदि अर्थक्रियाओंको कर रही हैं । पुद्गलकी जल पर्याय करके स्नान, पान, अवगाहन, अर्थक्रियायें करी जाती हैं । एकान्त करके यानी सर्वथा शरीर, पृथ्वी, आदिकोंको वह अर्थक्रियाकारीपन कठिनतासे भी नहीं बन पाता है । अर्थात्-द्रव्यरूपसे शरीर, पर्वत, आदिक किसी भी लौकिक प्रयोजन साधक अर्थक्रियाका सम्पादन नहीं कर रहे हैं जैसे कि खेतकी मिट्टी भलें ही चना, गेंहू, ईख, मूंग, उर्द, बननेकी सामर्थ्यको रखती है किन्तु वर्तमान मिट्टी अवस्थामें रोटी, दाल, पेडा, या क्षुधा निवारण आदि कार्योको नहीं कर पाती हैं अथवा इस पंक्तिका अर्थ यों कर लिया जाय कि वैशेषिकोंके यहां द्रव्यसे सर्वथा भिन्न मानी गयी पर्यायको अर्थक्रियाकारीपना कथमपि युक्तियोंसे नहीं सध पाता है । द्रव्यसे कथंचित् अभिन्न हो रही पर्यायें ही अर्थक्रियाओंको करती हैं पर्यायात्मक द्रव्य अर्थक्रियाओंको साध रहे हैं । अतः अर्थक्रियाकारित्व हेतु उन पृथ्वी, शरीर, आदि केवल पर्याय या स्वतंत्र द्रव्योंमें नहीं घटित हो पाता है इस कारण स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास ही है ! यहांतक पांचों हेतुओंको सर्वथा स्वीकार करनेपर वैशेषिकोंके ऊपर स्वरूपासिद्ध हेत्वाभासका प्रसंग दे दिया गया है दो हेतुओंमें भागासिद्ध दोष भी जड दिया है। यदि पुनः कथंचित्कार्यत्वमन्यद्वा हेतुस्तदा विरुद्धः स्यात् स्वयमिष्टविपरीतस्य कथंचिद्धीमद्धेतुकत्वस्य साधनात् । सर्वथा बुद्धिमत्कारणत्वे हि साध्ये जगतः कथंचिद्धीमद्धेतुकत्वसाधनो हेतुर्विशेषविरुद्धः सर्वोऽपीति। नाक्रोशंतः प्रपलायंते विशेषविरुद्धा हेतवः। कार्यत्वादिना मौलेन हेतुना स्वेष्टस्य साध्यस्यामसाधनात्तेषां निरवकाशत्त्वाभावात् तैरस्य व्याघातसिद्धेः। यदि फिर वैशेषिक कथंचित् कार्यपनेको हेतु स्वीकार करेंगे अथवा अचेतनोपादानत्व, सन्निवेशविशिष्टत्व, आदि अन्य हेतुओंमें कथंचित्पना लगाकर उनको हेतु अभीष्ट करेंगे तब तो उनके वे हेतु विरुद्ध हेत्वाभास होजायंगे क्योंकि कथंचित् कार्यपना आदि हेतु तो जगत्में कथंचित् बुद्धिमान्
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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