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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः होनेका विरोध होगा । एक क्षणमें ही उपज कर नष्ट होनेवाला पदार्थ जब आत्मलाभ ही नहीं कर सका तो फिर अपने योग्य अर्थक्रियाको भला क्या करेगा ? अनेक क्षणोंतक ठहरते हुये ही बाण आदि पदार्थ अभीष्ट स्थानपर पहुंच सकते हैं। कालान्तर स्थायी घट ही जलधारण क्रियाको कर पाता है । बहुत देरतक ठहर रहे अन्न, जल, आदिक पदार्थ ही क्षुधा, पिपासा, आदिकी निवृत्ति कर सकते हैं । दीपकलिका, बिजली, बुदबुदा ( बबूला ) आदि पदार्थ भी सर्वथा नित्य नहीं हैं। असंख्य समयोतक इनकी स्थिति है द्रव्यरूपसे तो ये भी नित्य हैं । अतः तुम्हारा सर्वथा कार्यत्व हेतु प्रकृत पक्षमें नहीं घटित होनेसे स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । तिस ही कारणसे यानी द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा कथन करनेसे जगतके सम्पूर्ण पदार्थोंको उपादान कारणसे रहितपना है जब कि सम्पूर्ण चराचर पदार्थ द्रव्यरूपसे नित्य हैं ऐसी दशामें वे उपादान कारणोंसे जन्य नहीं हो सकते हैं अतः शरीर, पृथिवी, आदिकोंमें अचेतन उपादान कारणोंसे उपजना हेतु भी सिद्ध नहीं है तब तो अचेतनोपादानत्व हेतु भी स्वरूपासिद्ध हुआ। दूसरी बात यह है कि अचेतनोपादानत्व हेतु भागासिद्ध हेत्वाभास भी है । पक्षके एक देशमें हेतु रहै और पक्षके दूसरे देशमें हेतु नहीं रहै वह भागासिद्ध हेत्वाभास होता है । शरीर, पृथिवी, वृक्ष, आदिके उपादान कारण अचेतन माने गये हैं । किन्तु ज्ञान, सुख, इच्छा आदिक कार्य भी पक्षकोटिमें किये गये हैं । परन्तु ज्ञान आदिके उपादान कारण तो चेतन आत्मायें माने गये हैं । अतः उस स्वीकृति करके भी पक्षके परिपूर्ण देशोंमें नहीं ठहरनेसे अचेतनोपादानत्व हेतु भागासिद्ध हेत्वाभास है । जैसे कि वनस्पतियोंमें चेतनपना सिद्ध करनेके लिये प्रयुक्त किया गया स्वापहेतु भागासिद्ध है वनस्पतियां ( पक्ष ) चैतन्यवाली हैं। ( साध्य कोटि ) शयन करनेवाली होनेसे ( हेतु ) दो दिनके जन्मे हुये बालकके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमान द्वारा निद्राकर्मका उदय होनेपर सो रही वनस्पतियोंमें तो चैतन्य घटित हो जाता है किन्तु हलन, कम्पन, कर रहीं जागती हुयीं वनस्पतियोंमें स्वाप हेतुसे चेतनपना सिद्ध नहीं हो पाता है । सम्पूर्ण जागते हुये मनुष्य, पशु, पक्षी जीवोंमें भी स्वाप हेतुसे चैतन्यकी सिद्धि नहीं हो पाती है । तथा तीसरा सन्निवेशविशिष्टपना हेतु भी द्रव्यके घटित नहीं होता है । क्योंकि वह रचनाविशेष या तिकोने, चौकोने, गोल, आदि परिमाणोंकी रचनायें पर्यायोंमें पायी जाती हैं। इस कारण सर्वथा सन्निवेशविशिष्टत्व हेतु स्वरूपासिद्ध है । चारो ओर देखी जा रही रचनायें जब कि पर्यायोंकी नियत हैं तो द्रव्यार्थिकरूपसे विशेष सनिवेश उन पक्षोंमें नहीं वर्तता है एक बात यह भी है कि वैशेषिकोंने ज्ञान, सुख, आदि गुणोंमें या भ्रमण, चलन आदि क्रियाओंमें सन्निवेशविशेषको स्वयं स्वीकार नहीं किया है “ गुणादिनिर्गुणक्रियः " गुण, क्रिया, जाति, आदिमें परिमाण आदि गुण या क्रियायें नहीं ठहरते हैं गुण तो द्रव्योंमें ही पाये जाते हैं । अतः पक्षके एक देश हो रहे ज्ञान आदिमें सन्निवेशविशेषकी वर्तना नहीं होनेसे सर्वथा सन्निवेशविशिष्टत्व हेतु भागासिद्ध हेत्वाभास है । उन सर्वथा कार्यत्व, सर्वथा अचेतनोपादानत्व, सर्वथा सन्निवेशविशिष्टत्व हेतुओंके समान ही चौथ
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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