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तत्त्वार्यश्लोक
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ताो भी साधता है । गीले ईंधन के संयोग को भी समझा देता है। धूममें अनेक कुतर्क ( तनाखियां ) उठायी जा सकती हैं । कृतकत्व हेतुमें भी देश, कालके विशेषों की अपेक्षा लगाकर विशेष रुद्ध धर दी जायगी । आचार्य कहते हैं कि यह नहीं समझना क्योंकि लोकदक्ष व्यवहारी जनों करके कथंचित् अग्निमत्त्व, कथंचित् अनित्यत्व आदिको ही साध्य किया है और कथंचित् धूमवत्त्व, कथंचित् कृतकत्व, आदिको ही हेतुपने करके स्वीकार किया गया है । अतः धूमादि हेतुओंमें असिद्ध हेत्वाभास, विरुद्ध हेत्वाभास, सहितपन का योग नहीं हो पाता है, यदि सर्वथा धूम या सर्वथा अग्निको तुप करके स्वीकार किया गया है । अतः धूमादि हेतुओं में असिद्ध हेत्वाभास, विरुद्ध हेत्वाभास, सहितपनका योग नहीं हो पाता है । यदि सर्वथा धूम या सर्वथा अभिको हेतु और साध्य बना जायगा तब तो इनको भी उन्हीं तोप के गोले सदृश हो रहे असिद्धपन, विरुद्धपनसे उठा दिया जायगा । वैशोषक कहते हैं कि तब तो सम्पूर्ण जगतों का कथंचित् बुद्धिमान् कारणसे जन्यपनको साध्य हो
से और कथंचित् कार्यत्व, कथंचित् सन्निवेशविशिष्टत्व आदि को हेतुपना स्वीकार कर लेने से परवादी हम वैशेषिक के यहां भी कोई दोष नहीं आता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों कहनेपर स्याद्वादियोंकी ओरसे सत्रहवीं वार्तिक में वैशेषिकों के ऊपर सिद्धसाधन दोषको तिस प्रकार व्यवस्था करा दी गयी है । हम स्याद्वादी जब कि नाना आत्माओंको शरीर, खनिज, पर्वत, आदि जगद्वर्ती कार्योंका निमित्तकारणपन प्रथम ही स्वीकार कर रहे हैं तो सिद्धको ही साधनेसे क्या लाभ ? वादीको प्रतिवाद के सन्मुख असिद्ध पदार्थकी सिद्धि करनी चाहिये, बुद्धिवृद्ध पुरुषोंको गतमार्गका पुनः गमन करना परिश्रमवर्धक ही है
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द्रव्यं गुणः क्रिया नान्त्यविशेषोऽशाश्वतो ननु । विवादाध्यासितो धीमान हेतुः साध्यस्थितो यदा ॥ ५५ ॥ कार्यत्वं न तथा स्वेष्टविपरीतं प्रसाधयेत् । नाप्यसिद्धं भवेत्तत्र सर्वथापि विवक्षितं ॥ ५६ ॥ इत्येके तदसंप्राप्तं भेकांताप्रसिद्धितः । कार्यकारणयोरैक्यप्रतिपत्तेः कथंचन ॥ ५७ ॥
दूसरे कोई एक वैशेषिक विद्वान् स्वपक्षका अवधारण करनेके लिये यों कह रहे हैं कि हम सम्पूर्ण द्रव्योंको पक्ष नहीं बनाते हैं । किन्तु घट, पट, आदिक कार्यद्रव्योंको पक्षकोटि में धरते हैं । इसी प्रकार अनित्य गुणोंको पक्ष स्थिर करते हैं । देश से देशान्तर करा देना स्वरूप क्रियायें तो हमारे यहां सब अनित्य ही मानी गयी हैं । नित्य द्रव्योंमें वर्त रहे व्यावर्तक, अनन्त और अन्तमें वर्त रहे ऐसे अंत्यविशेषों को भी हम धर्मी नहीं बना रहे हैं। सामान्य, समवाय, नित्यगुण और नित्य द्रव्य भी धर्मी