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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
तन्न तदन्वयव्यतिरेकानुविधानविकलं दृष्टं यथा कुविंदादिनिमित्तं वस्त्रादि । महेश्वरसिसृक्षान्वयव्यतिरेकानुविधानविकलं च स्थावरादि तस्मान्न तन्निमित्तमिति व्यापकस्य तदन्वयव्यतिरेकानुविधानस्यानुपलंभादव्याप्यतन्निमित्तत्वस्य स्थावरादिषु प्रतिषिद्ध सिद्धे सति सनिवेशविशिष्टत्वादेहेतोरनैकांतिकत्वं स्थावरादिभिः केचिन्मन्यते ।
- यदि फिर तुम पौराणिकोंका यह मन्तव्य होय कि हम ईश्वरकी सिसृक्षाको नित्य नहीं मानते हैं। जिससे कि व्यतिरेक नहीं बन पावे किन्तु वह अनित्य भी सिसृक्षा ब्रह्मासम्बन्धी परिमाण (नाप) करके सौ सौ वर्षके अन्तमें जाकर जगद्वत्ती भोक्ता प्राणियोंके अदृष्टकी सामर्थ्यसे एक ही उपजती है। दूसरी सिसृक्षासे उसकी उत्पत्ति नहीं मानी जाती है। अर्थात्-सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षका सत्ययुग है । बारह लाख छियानवै हजार मानुष वर्षोका त्रेतायुग है। आठ लाख चौसठ हजार वर्षांका द्वापर है । और चार लाख बत्तीस हजार मानुष वर्षाका कलियुग है । यो सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुगकी सहस्र संख्याके बीत जानेपर ब्रह्माका एक दिन समझा जाता है । इसी प्रकार हजार चार युगोके समान चार प्रहरोंकी एक रात मानी गयी है । यों इन रात, दिनोंसे महीना और वर्ष बनाकर सौ वर्षके पीछे एक ही सिसृक्षा उपजती है । उसको उपजानेमें अन्य सिसृक्षा कारण नहीं है। हां, जगत्के प्राणियोंके पुण्य, पाप, उस सिसृक्षाको उपजानेमें निमित्त पड जाते हैं । जैसे कि न्यायाधीशकी नियुक्तिमें अपराधी या निरपराधी पुरुषोंका पाप, पुण्य निमित्त हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि तब तो उस ही कारणसे यानी सुख, दुःखको भोगनेवाले संसारवर्ती प्राणियोंके अदृष्टकी सामर्थ्यसे ही कार्य जगत्की उत्पत्ति हो जाओ जैसा कि हम जैन मानते हैं। ईश्वरकी सिसृक्षा करके क्या प्रयोजन सधा ? नियत कारणों द्वारा नियत कार्योका उपजना बडा उत्तरदायी कर्तव्य है । अतः कारणकोटिमें अप्रमित ठलुआ पदार्थोका बोझ बढाना हितकर नहीं है । तिस कारण सिद्ध हुआ कि स्थावर आदि कार्योकी उत्पत्तिमें महेश्वर या उसकी सिसृक्षा निमित्तकारण नहीं है। ( प्रतिज्ञा ) उन कार्योंके साथ अन्वय और व्यतिरेकके अनुविधानका रहितपना होनेसे ( हेतु ) जो कारण जिस कार्यका निमित्त है । वह कारण उस कार्यके साथ हो रहे अन्वयव्यतिरेकोंके अनुविधान करनेसे रीता नहीं देखा गया है। जैसे कि कोरिया, तुरी या कुलाल, दण्ड, आदिको निमित्त पाकर हुये वस्त्र, घट आदि कार्य हैं । ( व्यतिरेकदृष्टान्त ) महेश्वर या उसकी सिसृक्षाके साथ अन्वय व्यतिरेकका अनुविधान करनेसे विकल हो रहे स्थावर आदि कार्य हैं। ( उपनय ) तिस कारणसे वे स्थावर आदि कार्य उस महेश्वर या सिसृक्षाको नहीं निमित्त पाकर उपजे हैं । ( निगमन ) इस पांच अवयववाले अनुमान द्वारा व्यापक हो रहे तदन्वय व्यतिरेकानुविधानके अनुपलम्भसे स्थावर आदि कार्योंमें तन्निमित्तपनका प्रतिषेध हो जाना सिद्ध होते सन्ते सन्निवेशविशिष्टत्व, कार्यत्व, आदि हेतुओंका स्थावर, खनिज, आदि कार्योद.रके व्यभिचार दोष होनेको कोई कोई विद्वान् मान रहे हैं। अर्थात्-कार्य कारण भावका व्यापक अन्वयव्यतिरेकानुविधान है।