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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ammmmmmmm mom कालमें उपज रही यदि पूर्व कालकी अन्य सिसृक्षाओंकी कारण रूपसे नहीं अपेक्षा रखती हुई उपज जाती है ? तब तो स्थावर आदिक असंख्य कार्य भी उस एक सिसृक्षाकी कारण रूपसे अपेक्षा नहीं करते हुये ही उपज जायंगे । ईश्वरकी सिसृक्षा करके क्या लाभ हुआ ? अर्थात्-ईश्वरकी सिसृक्षासे कुछ प्रयोजन नहीं निकला । हां यदि अन्य सिसृक्षासे उस अनेक स्वभाववाली सिसृक्षाकी उत्पत्ति मानी जायगी । तब तो उस दूसरी सिसृक्षासे ही सम्पूर्ण क्रमभावी और अक्रमभावी स्थावर आदि कार्य भी प्रकट हो जाओ । अनेक शक्तिवाली सिसृक्षाको मध्यमें कारण मानेनका बोझ व्यर्थमें क्यों लादा जाता है ? कर्तृत्ववादी यदि दूसरी सिसृक्षामें भी नानाशक्तियोंका योग होजानेसे उस स्वानुकूल कार्यकारणभावको स्वीकार करेंगे तब तो वही पर्यनुयोग उठाया जायगा कि वह सिसृक्षा स्वतः उपजेगी ? अथवा दूसरी सिसृक्षासे उत्पन्न होगी ? इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवी, कोटियोंपर भी चोद्य चलाना बढता ही चला जायगा । इस ढंगसे हुई अनवस्थाका निवारण करना तुमको अतिकठिन कर्त्तव्य होजायगा। यदि पुनर्नित्यानेकशक्तिरेकैव महेश्वरसिसृक्षा तदा अस्याः स एव व्यतिरेकाभावो महेश्वरन्यायवत् । तदव्यापित्वे एतच्छ्न्येपि देशे स्थावरादीनामुत्पत्तेः कुतोऽन्वयस्यापि प्रसिद्धिः? उक्त संपूर्ण दूषणों के प्रसंगसे भयभीत होकर यदि फिर तुम ईश्वरकी अनेक शक्तिवाली एक ही सिसृक्षाको नित्य स्वीकार कर लोगे तब तो महेश्वरके हुये न्यायके समान इस नित्य सिसृक्षाका भी वही व्यतिरेकका अभाव दोष लग बैठेगा । अर्थात्-नित्य महेश्वरका जैसे देशव्यतिरेक या कालव्यतिरेक नहीं बन पाता है उसी प्रकार महेश्वरकी सिसृक्षाका भी व्यतिरेक नहीं बन सकेगा। जब जब या जहां जहां सिसृक्षा नहीं है, तब तब, वहां वहां स्थावर आदि कार्य नहीं उपज पाते हैं । नित्य व्यापक सिसृक्षाके इस व्यतिरेकका अभाव होजानेसे अन्वय भी ठीक नहीं घट पाता है। अन्वयमें तो असाधारण कारणोंका और आकाश आदि साधारण कारणों का पदस्थ समान है, अतः अन्वय व्यतिरेकोंके नहीं घटनेसे अनेक शक्तिवाली नित्य एक सिसृक्षाको स्थावर आदि कार्योका निमित्तपना नहीं सधता है । यदि देश व्यतिरेक बन जानेकी रक्षा करनेके लिये उस सिसृक्षाको अल्पदेशवृत्ति अव्यापक माना जायगा तब तो इस सिसृक्षासे रीते होरहे देशोंमें भी स्थावर, ऋतुपरिवर्तन आदि कार्योकी उत्पत्ति अविराम होरही देखी जाती है । इस कारण विचारे अन्वयकी भी प्रसिद्धि भला किस ढंगसे होसकी ? अर्थात्-सिसृक्षाके होनेपर ही कार्य उपजने चाहिये थे। किन्तु अव्यापक सिसृक्षा जहां नहीं है वहां भी कार्य उपज रहे हैं । अतः अन्वय बिगड गया । यदि पुनरनित्यापि सिसृक्षा ब्राह्मण मानेन वर्षशांते जगद्भोक्त्तृप्राण्यदृष्टसामर्थ्यादेकैवोत्पद्यते न सिसृक्षांतरादिति मतं, तदा तत एव जगदुत्पत्तिरस्तु किमीश्वरसिसृक्षया ? ततो न स्थावरायुत्पत्तौ महेश्वरो निमित्तं तदन्वयव्यतिरेकानुविधानविकलत्वात् । यद्यनिमित्तं
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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