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________________ ४३६ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके क्रमक्रमसे करेंगी । अतः युगपत् सकल कार्योंकी उत्पत्तिका प्रसंग नहीं आ पाता है। ग्रन्धकार कहते हैं कि तब तो दूसरी दूसरी सिसृक्षाओंकी उत्पत्तिमें अन्य अन्य सिसृक्षायें और स्थावर आदि कार्योंकी उत्पत्तिमें उतनी ही न्यारी सिसृक्षायें कारण हो रही स्वीकार करनी पडेंगी, क्योंकि कार्याका विशेष रूपसे देखना होनेसे उनके विशेष कारणों की व्यवस्था हो जाना अन्यथा बन नहीं सकता है। अर्थात्-न्यारे न्यारे कारणोंसे ही न्यारे न्यारे कार्योंकी उत्पत्ति होनेका अविनाभाव है । दूसरे क्षण, तीसरे क्षण, चौथे क्षण, आदिमें ईश्वरकी न्यारी न्यारी सिसृक्षायें तभी उपज सकती हैं, जब कि उनको उपजानेवाली पहिले क्षणमें अनेक सिसृक्षायें मानी जावें और क्रमभावी स्थावर आदि कार्योको उपजालेमें भी उतनी पहिले सिसृक्षायें चाहिये कारणोंमें भेद माने बिना कार्योंमें विशेषतायें नहीं आ सकती हैं । जैनसिद्धान्तमें भी " यावन्ति कार्याणि तावन्तः प्रत्येकं स्वभावभेदाः " जितने छोटे मोटे कार्य हो रहे हैं, उतने कारणों के स्वभावभेद माने जाते हैं। एक कारणसे भी यदि अनेक कार्य हो रहे हैं, तो उस एक कारणमें अनेक स्वभाव घुस रहे हैं । नानी या बडनानीमें भी धेरत्तेको उपजानेका स्वभाव अन्तर्मूढ है । जैसे कि बाबा पडबावामें नाती, पंतीको उपजानेकी कारणता निहित है । इकतरा, तिजारी, चौथेया, ज्वरोंकी या एक एक, दो दो पीडी बीचमें देकर उपजनेवाले कौलिक रोगोंके उपजानेकी शक्ति भी कारणोंमें सदा छिपी हुई विद्यमान है । आप कर्त्तावादी पण्डित तो पदार्थोंमें अनेक धर्मोको स्वीकार नहीं करते हैं । अतः आपको अनन्तसिसृक्षायें स्वीकार करनी पडेंगी यह महागौरव या आनंत्यदोष तुम्हारे ऊपर हुआ। नानाशक्तिरेकैव सिसृक्षा तन्निमित्तमिति चेत्, तर्हि सकलक्रममावीतरकार्यकरणपटुर नेकशक्तिरेकैव महेश्वरसिम्रक्षास्तु । सा च यदि सिसृक्षांतरनिरपेक्षोत्पद्यते तदा स्थावरादिकार्याण्यपि तन्निरपेक्षाणि भवंतु किमीश्वरसिमुक्षया ? सिसृक्षांतरात्तदुत्पत्तौ तत एव सकलक्रममावीतरस्थावरादिकार्याणि प्रादुर्भवंतु । नानाशक्तियोगात्तदभ्युपगमे च स एव पर्यनुयोग इत्यनवस्था दुर्निवारा। । यदि कर्तृवादी यों कहें कि उत्तरोत्तर अनेक सिसक्षाओं और असंख्य स्थावर आदि कार्योंको उपजानेमें उपयोगिनी हो रहीं अनेक शक्तियोंको धारनेवाली एक ही सिसृक्षा उपज रही उन सिसृक्षाओं और स्थावर आदि कार्योंकी निमित्त कारण मान ली जायगी यों कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो क्रम क्रमसे होनेवाले या उनसे न्यारे युगपत् होनेवाले सम्पूर्ण कार्योंको करनेमें चतुर हो रहीं अनेक शक्तिवाली महेश्वरकी सिसक्षा एक ही मान ली जाओ। जैनसिद्धान्त अनुसार तुमने यह मार्ग अच्छा पकड लिया है । अनेक स्वभाववाली एक सिसृक्षा ही जगत्के सम्पूर्ण कार्योको कर डालेगी । मध्यमें अनेक सिसृक्षाओंको माननेकी आवश्यकता नहीं है । इससे ईश्वरकी भी प्रशंसा हुई और आनन्त्य दोषका परिहार भी हो गया। किन्तु हां, यह तो बताओ कि वह एक सिसूक्षा वर्तमान
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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