________________
४३५
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ओकी उत्पत्ति करनेमें ही व्यापार होता रहेगा, अतः पहिले स्थावर आदि कार्यों की उत्पत्ति नहीं होसकेगी, सिसृक्षाको अवकाश नहीं मिल जायगा, ऐसी दशामें सिसृक्षाकी शरण लेना व्यर्थ ही है जो भृत्य अपने ही शारीरिक कार्योंसे अवकाश नहीं पाता है, वह प्रचंड प्रभुकी सेवा क्या कर सकेगा ? कुछ नहीं ।
यदि पुनरियं सिसृक्षांतरोत्पत्तौ स्थावरादिकार्योत्पत्तौ च व्यप्रियेत पूर्वा पूर्वा च सिसृक्षा परां परां च सिसृक्षां तत्सहभाषिस्थावरादींश्च प्रति व्याप्रियमाणाभ्युपेयेत, तदैकैव सिसृक्षा सकलोत्पत्तिमतामुत्पत्तौ व्यापारवती प्रतिपत्तव्या । तथा च सकृत्सर्वकार्योत्पत्तेः कुतः पुनः कार्यक्रमभावप्रतीतिः ?
यदि फिर ईश्वरवादी यों कहे कि यह पूर्वकालीन सिसृक्षा दूसरी दूसरी सिसृक्षाओंको उत्पन्न करनेमें और स्थावर, त्रसशरीर, आदि कार्योकी उत्पत्तिमें व्यापार करेंगी तथा पूर्वसिसृक्षासे भी पहिली पहिली सिसृक्षायें स्वस्वजन्य उत्तरोत्तर सिसृक्षाओंको और उन सिसृक्षाओं के साथमें होनेवाले स्थावर आदि कार्योंके प्रति व्यापार कर रहीं स्वीकार कर ली जायगी । आचार्य कहते हैं कि तब तो एक ही ईश्वरके सृजने की इच्छा इन उपजनेवाले सम्पूर्ण कार्यों की उत्पत्ति में व्यापार कर रही समझ लेनी चाहिये, और तिस प्रकार एक ही सिंसृक्षाको यावत् कार्यों की उत्पत्तिमें व्यापार करनेवाली माननेपर एक ही वारमें सम्पूर्ण कार्यों की उत्पत्ति होना बन बैठेगा । अतः फिर कार्यों के क्रम क्रमसे होने की प्रतीति होना भला कैसे सघ सकेगा ? सो बताओ । अर्थात् – एका ससृक्षाद्वारा युगपत् सम्पूर्ण कार्य उपज बैठेंगे जो कि पहिले प्रसंग उठाया गया था ।
1
स्यान्मतं, क्रमशः स्थावरादिकार्याणां देशादिनियतस्वभावानामुभयवादिप्रसिद्धत्वात् तन्निमित्तभावमात्मसात्कुर्वाणा महेश्वरसिसृक्षाः क्रमभाविन्य एवानुमीयंते कार्यविशेषानुमेयत्वात् कारणविशेषव्यवस्थितेरिति । तर्हि सिसृक्षांतरोत्पत्तावन्याः सिसृक्षाः स्थावरादिकार्योत्पत्तौ चापरास्तावंत्यो अभ्युपगंतव्याः कार्यविशेषात्कारणविशेषव्यवस्थितेरन्यथानुपपत्तेः ।
ईश्वरवादियोंका यह भी मन्तव्य होवे कि नियत देशमें होना, नियत कालमें उपजना, प्रति नियत आकारको धारना, आदि स्वभाववाले स्थावर आदि कार्योंकी यों नियतरूपसे उत्पत्ति होना हम तुम दोनों वादी प्रतिवादियों के यहां प्रसिद्ध हो रहा है इस कारण इन नियत कार्योंके निमित्तकारणपनको अपने अधीन कर रहीं महेश्वरकी सिसृक्षायें क्रम क्रमसे हो रहीं सन्ती ही अनुमानप्रमाण द्वारा जानी जा रही है । क्योंकि विशेष विशेष कारणोंकी व्यवस्थाका तज्जन्य विशेष विशेष कार्योंद्वारा अनुमान कर लिया जाता है, जिस प्रकार आप जैन क्रमक्रमसे उपजनेवाले कार्यों के क्रम क्रमवर्ती कारणोंका निर्धारण कर लेते हैं । उसी प्रकार क्रमवर्तिनी सिसृक्षायें भी क्रमवर्ती कार्यो को
6