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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके मोंकी विचित्रतासे हो जाओ। उस स्थावर आदिकी विचित्रताका उस सिसृक्षासिद्धि के साथ कोई विरोध नहीं है । प्रत्युत अनुकूलता है । अर्थात् – बालक, वृद्ध, रोगी, पशु, आदिकी बहिरंग इन्द्रियां स्थूलदृष्टि से समान दीखती हैं । किन्तु भिन्न भिन्न जातिके रूपादि ज्ञानोंके अनुसार अतीन्द्रिय इन्द्रियों का परिज्ञान कर लिया जाता है । उसी प्रकार ईश्वरकी अतीन्द्रिय सिसृक्षाका भी परिज्ञान कर लिया जा सकता है । फिर सिसृक्षाका खण्डन कहां हुआ ? | यहांतक अपर विद्वान् कह रहे हैं । ४३४ तेऽत्र प्रष्टव्याः । स्थावराद्युत्पत्तौ निमित्तभावमनुभवन्ती महेश्वरस्य सिसृक्षा यदि पूर्वसिसृक्षातो भवति, सापि तत्पूर्वसिसृक्षातस्तदा सोत्तरां सिसृक्षां प्रादुर्भावयति वा न वा १ न तावदुत्तरः पक्षस्तदनंतरस्थावरादिभ्य उत्तरोत्तरस्थावराद्यनुत्पत्तिप्रसंगात् । तत एव तदुत्पत्तौ व्यर्थानादिसिसृक्षापरंपरापरिकल्पना, कथंचिदकयैवाशेषपरापरस्थावरादिकार्याणामुत्पादयितुं शक्यत्वात् पूर्वसिसृक्षया अप्युत्तरोत्तरसिसृक्षां प्रत्यव्यापारात् । यदि पुनराद्यः पक्षः कक्षीक्रियते तदा चोचरसिसृक्षायामेव प्रकृतसिसृक्षाया व्यापारात् ततः स्थावरादिकार्योत्पत्तिर्न भवेत् । एतेन पूर्वपूर्वसिसृक्षाया अप्युत्तरोत्तरसिसृक्षायामेव व्यापृतेः पूर्वमपि स्थावराद्युत्पत्त्यभावः प्रतिपादितः । अब ग्रंथकार सिद्धांत रीतिसे केचित् का सिद्धांत खंडन करते हैं कि वे केचित् विद्वान यहां प्रकरण में यों पूंछने योग्य हैं कि स्थावर, सूर्य, तनु आदि की उत्पत्ति में निमित्तभावका अनुभव कर रही महेश्वरकी सिसृक्षा यदि पूर्वकालवर्तिनी दूसरी सिसृक्षास उपजती है तब तो वह दूसरी सिसृक्षा भी उससे पहिले की तीसरी सिसृक्षासे उपजेगी, उस समय हमारा प्रश्न यह है कि स्थावर आदिकोंको उपजा रही वह पूर्वकालीन सिसृक्षा क्या उत्तरकालवर्तिनी सिसृक्षाको उपजावेगी ? अथवा नहीं प्रकट करेगी ? बताओ । पिछले पक्षका ग्रहण करना तो ठीक नहीं पडेगा, क्योंकि पूर्वसिसृक्षा यदि उत्तर सिसृक्षाको पैदा नहीं करेगी तो उसके अनंतर होनेवाले स्थावर आदिकोंसे पुनः उत्तरोत्तर स्थावर आदिकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, तुम्हारे यहां सिसृक्षा के बिना कोई कार्य उपजता नहीं माना गया है, किन्तु स्थावरोंसे अगले अगले स्थावरों की उत्पत्ति हो रही देखी जाती है। यदि एक उस पहिली सिसृक्षांसे ही उस उत्तर सिसृक्षाकी उत्पत्ति मान ली जायगी, तब तो परम्परासे अनादिकालीन सिसृक्षाओं की लंबी चौडी कल्पना करना व्यर्थ पडेगा । उस एक ही सिसृक्षा करके उत्तरोत्तर होनेवाले संपूर्ण स्थावर आदि कार्योंको कथंचिद् उपजाया जा सकता है । पूर्वकालकी सिसृक्षा करके भी उत्तरोत्तर होनेवालीं सिसृक्षाओंके प्रति कोई व्यापार नहीं किया जासकता है, जो तुम मान बैठे हो । यदि आप करके आदिके पक्षका अंगीकार किया जायगा तब तो पूर्व सिसृक्षासे उत्तर सिसृक्षा की उत्पत्ति करनेपर प्रकरण प्राप्त सिसृक्षाका केवल उत्तरकालवर्तिनी सिसृक्षाको उपजाने में ही व्यापार होता रहेगा । उस प्रकृत सिसृक्षासे स्थावर आदि कार्यों की उत्पत्ति नहीं होसकेगी । इस कथन करके यह भी प्रतिपादन कर दिया गया समझ लो कि अनादिकालीन पहिली पहिलीं सिसृक्षाओंका भी उत्तरोत्तर कालकी सिसृक्षा 1
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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