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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
SALALAJanaakaashanakaahanahahamunnamamanamam
वश बन बैठेगी । अन्यथा अव्यवहितपूर्व नियमसे उत्पत्ति होनेका अयोग होगा तथा सिसृक्षा और सहकारी कारण दोनोंकी वह एक सामग्री यदि पूर्ववर्ती अन्य सिसृक्षाओं करके प्रेरित नहीं होती सन्ती उन सिसृक्षा और सहकारी कारणोंकी उत्पादक मानी जायगी, तब तो एकसामग्री करके ही हेतुओंका व्यभिचार हुआ । यदि फिर अन्य सिसृक्षासे प्रेरित हो रही वह सामग्री उन सिसृक्षा और सहकारी कारणोंकी जननी मानी जावेगी तब तो प्रेरणा करने योग्य कार्यासे अव्यवहितपूर्व उस सामग्रीकी नियम करके उत्पत्ति होनी चाहिये । अन्यथा उक्त दोषोंका प्रसंग आवेगा और तिस प्रकार होचेपर छठी, सातवीं, न्यारी सिसृक्षा भी प्रेरणा योग्य सामग्रीविशेषसे अव्यवहितपूर्वमें नियम करके उपज रही सन्ती उन हेतुओंके साथ एकसामग्री के अधीन हो जायगी। और वह दोनोंको वशमें करने वाली एक सामग्री यदि अन्य सिसृक्षाकरके प्रेरित नहीं हो रही सन्ती उनकी जनक (जनिका ) मानी जायगी तब तो उस सामग्रीकरके ही सन्निवेशविशिष्टत्व आदि हेतुओंका व्यभिचार दोष लगा इत्यादिक रूपसे पुनः पुनः चक्कर देकर चोद्योंकी आवृत्ति कर ली जाती है । इस प्रकार तीसरा अन्य चक्रकदोष तुम्हारे ऊपर आ पडता है। " स्वग्रहसापेक्षग्रह सापेक्षत्रहसापेक्षग्रहकत्वं चक्रकत्वं” इस कारण इन सब चक्रक या व्यभिचार दूषणोंको परिहार करनेकी अभिलाषा रखनेवाले पौराणिक पण्डित करके क्षिति आदिकोंसे अव्यवहित पूर्व अथवा साथ उन कारणों करके सिसृक्षाकी नियमसे उत्पत्तिं नहीं स्वीकार कर लेनी चाहिये । और तैसा होनेपर नहीं उपज रही सिसृक्षाके साथ उन स्थावर आदि कार्योंके व्यतिरेकका अनुविधान कैसे जाना जा सकेगा ? यों अनित्य मान ली गयी भी ईश्वर इच्छाके साथ व्यतिरेक तो नहीं दीख रहा है । क्षिति, उदक, बीज, ऋतुकाल आदि सामग्रीके निकट होनेपर और प्रतिबन्धकोंके नहीं होनेपर स्थावर आदि कार्योका अवश्य उत्पाद हो रहा देखा जाता है । ईश्वरकी सिसृक्षाको सामग्रीमें डालनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । यहांतक केचित् पौराणिकोंके ऊपर एकदेशीय जैन विद्वान्के विचार प्रगट हो चुके हैं । यहां किन्हीं अपर विद्वानोंका निरूपण है कि तिस प्रकार यह जैनपक्षीय–विद्वानोंका कथा अयुक्त है । केवल परको निर्मुख करनेवाला खण्डन हमको अभीष्ट नहीं है। यों तो स्थावर आदि कार्योंके यदि अदृष्ट आदिको कारण माना जायगा वहां भी इन दोषोंके प्राप्त हो जानेका प्रसंग आ जायगा । अतः तुमको अपने जैन सिद्धान्तसे विरोध ठन जायगा | यदि फिर आपका यह मत होय कि सबको परिदृष्ट हो रहे पृथिवी, काल, आदि कारणोंकी परिपूर्णता होनेपर भी स्थावर आदि कार्योंके परिणाममें विचित्रता देखी जाती है। इस कारण पुण्य, पाप, स्वरूप अदृष्ट अथवा अन्य भी परोक्ष कारणोंकी सिद्धि कर ली जाती है । जैसे कि चक्षु, आलोक आदि कारणोंकी सफलता होनेपर भी अनेक जीवोंके भिन्न भिन्न प्रकार हो रहे रूप आदिके ज्ञानपरिणामोंकी विचित्रतासे अतीन्द्रिय इन्द्रियोंका या शक्तियोंका अनुमान कर लिया जाता है । यों तुम्हारा मन्तव्य होय तब तो कर्तृवादियोंके यहां ईश्वरकी सिसृक्षाकी सिद्धि भी तिस ही कारणसे यानी चमकारक स्थावर आदिके परिणा
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