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________________ ४३२ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके यदि केचित् पौराणिक पूर्वके समान यहां भी यों कहें कि कार्यकी उत्पत्तिके अव्यवहित पूर्वकालमें एकत्रित हुये अन्तिम समर्थ कारणोंके सनिधान पश्चात् ही दूसरी सिसृक्षाकी उत्पत्तिका नियम है। अतः वह अनुत्पत्तिका प्रसंग हमारे ऊपर नहीं आता है, यों पौराणिकोंके कहनेपर तो हमें कहना पडता है कि उस दूसरी सिसृक्षाको उन परिदृष्ट कारणोंसे उपजनेका प्रसंग आता है । क्योंकि उन कारणाके अव्यवहित उत्तरकालमें नियमसे उपजना अन्य प्रकारसे यानी उनका कार्य माने विना बन नहीं सकता है । इसी प्रकार आगे भी घुमा कर ये ही चोद्य उठाये जा सकते हैं। तीसरी, चौथी, आदि सिसृक्षायें और सहकारी कारण तथा चरमकारणोंकी जिज्ञासायें उत्तरोत्तर बढती ही जावेंगी। यों बार, बार, अनित्यसिसूक्षा, कार्योकी कदाचित् अनुत्पत्ति, अन्तिम सहकारी कारणोंके पश्चात् सिसृक्षाका जन्म, पुनः सहकारी कारणोंके लिये अन्य सिसृक्षाओंकी उत्पत्ति, इत्यादि ढंगसे आवृत्ति होती जाती है यह चक्रक दोष है । " स्वापेक्षणीयापेक्षितसापेक्षत्वनिबन्धनप्रसङ्गत्वं चक्रकत्वं " . अपने अपेक्षणीयसे अपोक्षित हो रहेकीसापेक्षताको कारण मानकर प्रसंग प्राप्ति करा देना चक्रक दोष है। यदि दूसरी सिसृक्षा करके नहीं प्रेरे जा चुके ही सहकारी कारणोंकी उत्पत्ति मानी जायगी तब तो उन्हीं सहकारीकारणों करके तुम्हारे सन्निवेशविशिष्टत्व आदि हेतुओंका व्यभिचार दोष हो जायगा । क्योंकि इस सिसृक्षाके साथ ही सहकारी कारणोंकी पूर्वसिसृक्षाके विना यों ही नियम करके उत्पत्ति हो रही है । स्थावर आदि कार्योंके सम्पूर्ण कारणोंकी कभी कभी नहीं उत्पत्ति हो जानेके कारण यदि प्रसंगका अभाव माना जायगा तब तो सिसृक्षा और पृथिवी आदिक सहकारी कारणोंका जनक एक कारण बन बैठेगा अन्यथा यानी. एक कारण माने विना दोनोंके सहभावका नियम नहीं बन सकता है और वह कारण यदि अय सिसक्षा करके प्रेरित नहीं हुआ ही उन सहकारी कारण और सिसृक्षाका जनक माना जायगा तब तो उस एक कारण करके ही तुम्हारे कार्यत्व आदि हेतुओंमें व्यभिचार दोष लगा। यदि अन्य सिसक्षा करके प्रेरित हो रहे एक कारणों को अपने उन कार्योका जनकपना अभीष्ट किया जायगा तब तो पूर्वके समान कभी होने और कभी कभी उन कार्योंकी उत्पत्ति नहीं होनेका प्रसंग होगा । यदि उस एक कारणकी भी सिसृक्षा करके प्रेरे जा रहे कारणके साथ नियम करके उत्पत्ति मानी जायगी तब तो साथ उपज रहे उन दोनोंका भी एक कारण बन बैठेगा और वह एक कारण यदि अन्य चौथी, पांचवीं, सिसृक्षा करके नहीं प्रेरित हो रहा ही उन कार्योका जनक है, ऐसी दशामें उस एक कारण करके ही " सन्निवेशविशिष्टत्व” आदि हेतुओंका व्यभिचार होगा, इत्यादिक रूपसे पुनः पुनः चोधोंकी आवृत्ति कर ली जाती है । इस कारण यह दूसरा चक्रक दोष तुम्हारे ऊपर आता है। तीसरा चक्रक इस प्रकार है कि क्षिति आदिकों करके पहिले अव्यवहित पूर्व यदि नियमसे उस सिसृक्षाकी उत्पत्ति मानी जायगी तब तो सहकारी कारणों करके सिसक्षाकी एक सामग्रीकी अधीनता हो जायगी । यानी सिसृक्षा और सहकारी कारणोंकी उत्पत्ति एक सामग्रीके
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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