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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
रूपादिज्ञानपरिणामवैचित्र्यादिन्द्रियशक्तिवदिति मतं, तदेश्वरसिसृक्षासिद्धिरपि तत एवास्तु तस्यास्तत्सिध्या विरोधाभावादित्यपरे ।
उस पौराणिका के मंतव्य पर अन्य एक विद्वानोंकी ओरसे यों दूषण उठाया जाता है “सिसृक्षाणां नित्यत्वभावेपि " यहांसे प्रारम्भ कर " स्थावरादिककार्यस्यावश्यम्भावदर्शनात् " यहांतक कोई एक विद्वान् दूषण दे रहे हैं यह दूषण ग्रंथकारको अभीष्ट नहीं है । अतः ग्रंथकार " तदेतदयुक्तं " से प्रारंभ कर " विरोधाभावात् " यहांतक किन्हीं दूसरे विद्वानों करके इस दूषण का प्रत्याख्यान करा देंगे " " तेत्र प्रष्टव्याः पश्चात् इस ग्रंथसे प्रारम्भ कर स्वयं ग्रंथकार इस केचित् के पक्षपर सिद्धांत दूषण उठायेंगे । केचित्के ऊपर एक विद्वानों का दूषण इस प्रकार है कि उन किन्हीं पौराणिकोंने ईश्वरी सिसृक्षाको अनित्य सिद्ध किया है । सिसृक्षाको नित्यपना नहीं होते हुये भी बाल गोपालोंतक देखे जारहे स्थावर आदिकों के कारण पृथिवी, जल, बीज आदिकी परिपूर्णता होनेपर भी कभी कभी स्थावर आदिकों के नहीं उपजनेका प्रसंग आवेगा। क्योंकि सिसृक्षा अनित्य है । कभी कभी उस सिसृक्षाका अभावसम्भव हो जायगा । अर्थात् - अनित्य सिसृक्षा के नहीं होनेपर अन्य संपूर्ण कारणों के होनेपर भी कभी कभी स्थावर आदिक कार्य नहीं उपज सकते हैं । स्थावर आदि कार्यों के कारणों का शनैः शनैः एकत्रीकरण होते होते तबतक यदि ईश्वरकी अनित्य सिसृक्षा उपज कर नष्ट भी होगयी होय तो हम क्या कर लेंगे | इच्छाके विना सब कारण यों ही व्यर्थ धरे रहेंगे । अतः कदाचित् स्थावर आदिक कार्यों की उत्पत्ति नहीं होसकेगी। यदि केचित् यों कहें कि उन स्थावर आदि कार्योंके उत्पादक अंतिम सहकारी कारणोंके संनिधान पश्चात् ही सिसृक्षाकी उत्पत्ति मानी जायगी, अतः कारणोंकी पूर्णताके अवसरपर उस सिसृक्षाका अभाव नहीं संभवेगा, यों कहनेपर तो हम एक पण्डित यों कहते हैं कि यो तो उस सिसृक्षाकी सहकारी कारणोंसे उत्पत्ति होने का प्रसंग आवेगा, क्योंकि उन परिदृष्ट क्षिति आदि कारणोंके अनंर सिसृक्षा के उपजनेका नियम अन्यथा बन नहीं सकता है । यानी जो पदार्थ जिन सहकारी कारणोंका कार्य होगा, वही उनके अव्यवहित उत्तर कालमें उपज सकता है ऐसी दशामें जिस सिसृक्षाको तुमने बलवती शक्ति समझ रक्खा है, वह महेश्वरकी सिसृक्षा स्वयं सह कारी कारणोंसे उपज रही बन बैठी, अब बताओ कि सिसृक्षा के पिता होरहे उन सहकारी कारणों को कौन बनाये ? यदि सिक्षाको उपजा रहे उन सहकारी कारणोंकी दूसरी सिसृक्षासे उत्पत्ति मानी जायगी तब तो स्थावर आदिके समान कभी कभी उन सहकारी कारणोंके नहीं उपजनेका प्रसंग आवेगा। क्योंकि कारणोंके अधीन होनेवाली दूसरी उस अनित्य सिसृक्षाका कभी सन्निधान नहीं हो पाता है। जो कार्य अपने कारणकूटके अधीन है स्वल्प भी कारणकी त्रुटि होजानेसे आवश्यकता होने पर भी कदाचित् वह कार्य नहीं उपजता है अथवा कथंचित् उपज लेनेपर भी दूसरे कारणोंके जुटने तक वह दूसरी सिसृक्षा नष्ट हो जायगी। ऐसी दशामें पहिली सिसृक्षाको उपजानेवाले कारणोंकी अनुत्पत्ति हुई। दादी के विना पिताकी उत्पत्ति नहीं है और पिताके विना पुत्रीकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है ।
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