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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः I उत्पत्ति मानी जायगी । ऐसी दशामें सर्वदा उन सहकारी कारणोंके सद्भावकी आपत्ति होती है । अतः नित्यसिसृक्षा और तदधीन सहकारी कारणों का सद्भाव पाया जानेसे सर्वदा कार्यों की उत्पत्ति होते रहनेका प्रसंग टल नहीं सकता है । यदि उन सहकारी कारणों का जन्म उस सिसृक्षा के अधीन नहीं मानोगे तब तो उन सहकारी कारणों करके हमारे कार्यत्व आदि हेतुओंका व्यभिचार दोष बन बैठेगा । यदि हमारे सहायक वे पण्डितजी यों कहें कि वे सहकारी कारण भी अपनी उत्पत्ति के हेतुओं का अभाव होनेसे सदा नहीं उपजते रहते हैं वैशेषिक कहते हैं कि यह भी नहीं कहना । क्योंकि उन सहकारी कारणों के उत्पादक हेतुओंका भी ईश्वरकी सिसृक्षासे उपजना माना जायेगा ? या ईश्वरकी इच्छासे उनका उपजना नहीं माना जावेगा ? इन दोनों पक्षोंमें पूर्वोक्त दोषों के आनेक प्रसंग होता है । अर्थात् — सहकारी कारणोंके उत्पादक हेतु यदि ईश्वरकी सिसृक्षासे उपजेंगे तो वे नित्य सिसृक्षासे शीघ्र उपजकर सहकारी कारणों को झट बना देंगे और सहकारी कारण सदा स्थावर आदि कार्यो को बनाते रहेंगे। हां, यदि उन सहकारी कारणों के सहकारी कारणोंकी उत्पत्ति यदि ईश्वर सिसृक्षा करके नहीं मानी जायगी तब तो सन्निवेशविशिष्टत्व आदि हेतुओं का उन सहकारी कारणोंके उत्पादक हेतुओं करके व्यभिचार बन बैठेगा । उन सहकारी कारणों का नियपना मानने पर तो वहा वही सर्वदा कार्योंके उपजते रहने का प्रसंग दोष आ पडता है । क्योंकि सिसृक्षा और सहकारी कारण नित्य होकर सदा वर्त रहे हैं । उक्त दोषों को टालनेका समीचीन उपाय यही है कि वह ईश्वरकी सिसृक्षा अनित्य ही मान ली जाय । युक्तियोंसे ईश्वर की सिसृक्षा अनित्य ही सिद्ध होती है । तथा हमारे शास्त्रों में भी इस प्रकार कथन किया है कि " ब्रह्मासम्बन्धी परिमाण करके सौ सौ वर्ष अन्तमें प्राणियों को भोगोंकी अनुभूति करानेके लिये चौदह भुवनके सर्व तंत्र स्वतंत्र प्रभु हो रहे भगवान् महेश्वरकी सिसृक्षा उपजती है "" 1 इस आगम वाक्यसे भी नित्य नहीं मानी गयी है । अन्यथा तिस प्रकार सौ सौ वर्षमें इच्छाकी उत्पत्ति होने का । अर्थात् - 1 ” विष्णु जाय तब अनुसार • सौ "" ब्रह्मा संबंधी सौ जायगा । अपने शास्त्रोंसे ही विरोध पड जाय ऐसे बचनको हम कहना नहीं चाहते हैं " कृतं, त्रेता, द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् । प्रोच्यते तत्सहस्रं तु ब्रह्मणो दिवसो मुने पुराण में लिखा है कि सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग ये चार युग एक हजार बार हो ब्रह्मा का एक दिन और इसी प्रकार एक रात होती है । यों एक दिन रातकी गणना वर्षोंको बना कर ब्रह्मा की आयु सौं वर्षकी मानी गयी है " ब्रह्मणो वर्षशतमायुः वर्षोंके पश्चात् खंडप्रलय होजाता है । पश्चात् महेश्वरकी स्रष्टुमिच्छा उपअ कर सृष्टिको रचती है मनुस्मृतिमें ब्रह्मा के एक दिनरातकी समाप्ति होनेपर सृष्टिप्रक्रिया मानी है । " दैविकानां युगानां तु 1 सहस्रं परिसंख्यया । ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च ॥ १ ॥ तद्वै युगसहस्रांतं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः, रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः । तस्य सोऽहर्निशस्यान्ते प्रसुप्तः प्रतिबुध्यते । प्रतिबुद्धश्व सृजति मनः सदसदात्मकम् ॥ ३ ॥ मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया । आकाशं "" ४२९ वह इच्छा विरोध हो
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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