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________________ ४२८ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके ननु महेश्वरसिमक्षापि तर्हि स्थावराद्युत्पत्ती निमित्तभावमनुभवतीति पूर्वसिसृक्षातः सापि खपूर्वसिसृक्षातः इत्यनादित्वात् कार्यकारणभावस्य कथमनवस्थादोषेणोपद्र्येत कथं वा वयैव हेतवोऽनैकांतिकाः स्युःन स्थावरादिकार्यानुपरमः स्वातंत्र्येणानुत्पादात्। नाव्यतिरको नित्यत्वानभ्युपगमात् सिसृक्षायाः, तन्नित्यत्वे सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसंगात् । सर्वदा सहकारिणामभावान तत्पसंग इति चेन्न, तेषामपि महेश्वरसिमृक्षया तज्जन्मत्वे सर्वदा सद्भावापत्तेस्तदनावसजन्मकतैरेव हेतूनां व्याभिचारात् । तत्सहकारिणोपि स्वोत्पत्तिहेतूनामभावात् न सर्वदोत्पद्यत इति चेन्न, तेषामपि ईश्वरसिसृक्षायास्तजन्मत्वेतरयोरुक्तदोषानुषंगात् । तत्सहकारिणां नित्यत्वे स एव सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसंगः सिसृक्षायाः सहकारिणां च नित्यत्वादनित्यैव सा युक्ता । " ब्राह्मण मानेन वर्षशतांते प्राणिनां भोगभूतये भगवतो महेश्वरस्य चतुर्दशभुवनाधिपतेः सिसृक्षोत्पयत" इति बचनाच न नित्यासौ तथोत्पत्तिविरोधादिति केचित् । पुनः वैशेषिक या पौराणिक अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि तब तो काल आदि पर्यायोंके समान महेश्वरकी सिसृक्षा भी स्थावर आदि कार्योंकी उत्पत्तिमें निमित्तकारणपनका अनुभव कर लेती है या अनुभव करती सन्ती यों वर्तमान कालकी सिसृक्षा पूर्व कालकी सिसृक्षासे उपजती जाती है और वह पूर्वकालकी सिसृक्षा भी अपनेसे पूर्वकालकी सिसृक्षासे उपज गयी थी, इस प्रकार कार्यकारणभावका अनादिपना होनेसे तुम्हारे समान हम वैशेषिकोंको भी अनवस्था पूर्णरूप अभीष्ट है, कोई क्षति नहीं है । पुनः अनवस्थादोष करके हमारे ऊपर क्यों उपद्रव उठाया जा रहा है ? और इस सिसृक्षा करके ही हमारे कार्यत्व, सन्निवेशविशिष्टत्व, हेतुओंको किस प्रकार व्यभिचार दोषसे युक्त किया जा रहा है । अर्थात्-जन्य सिसृक्षाओंकी अनादिधारा मान लेनेसे हम वैशेषिकोंके ऊपर अनवस्थादोषका ऊधम नहीं उठ पायेगा और हमारे हेतु व्यभिचारी भी नहीं हो सकेंगे। साथमें स्थावर, शरीर, आदि कार्योंकी उत्पत्तिका विराम नहीं पडना दोष भी नहीं आता है। क्योंकि स्वतंत्रता करके स्थावर आदि कार्योका उत्पाद नहीं होता है। उपज रही सिसृक्षाके अधीन नियत देश और नियत कालमें स्थावर आदि कार्य उपजेंगे । कारणोंके नहीं मिलनेसे वे सर्वदा उपजते ही नहीं रहेंगे तथा व्यतिरेक नहीं बनना दोष भी हमारे ऊपर नहीं आता है। क्योंकि सिसृक्षाका नित्यपना हमने स्वीकार नहीं किया है । हां, यदि उस सिसृक्षाको नित्य माना जाता तब तो सदा कार्योंकी उत्पत्ति होनेका प्रसंग हो सकता था । अन्यथा नहीं । यदि हम वैशेषिकोंको कोई बंचक यो सहायता देना चाहे कि सिसृक्षाको नित्य ही बने रहने दो, अकेली नित्यसिसृक्षा तो कार्यको नहीं बना देती है। अमेक सहकारी कारण भी चाहिये उन सहकारी कारणों का अभाव होनेसे सदा उन कार्योंकी उत्पत्ति होते रहनेका प्रसंग नहीं आ पायेगा । उन गोमुख-व्याघ्रोंके प्रति हम वैशेषिक कहते हैं कि इस प्रकारकी सहायता हमको नहीं चाहिये । क्योंकि उन सहकारी कारणोंकी भी महेश्वरसिसृक्षा करके वह
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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