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तत्त्रार्थचिन्तामणिः
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तो देश, काल, आदिका नियम नहीं बन सकेगा, नियत देश, नियत कालवाले कारणोंके विना ही कार्योंकी उत्पत्ति माननेपर सभी स्थलोंपर सदा ही काल आदि पर्यायोंका सद्भाव पाया जायगा और ऐसा होजानेसे संपूर्ण कार्योंकी अविराम उत्पत्ति होती रहेगी । अर्थात्-कार्यके होजानेपर भी पुनः पुनः वह लाखों, करोडों, बार उपजता रहेगा, उपजनेसे विराम (छुटी) नहीं मिल सकेगा, इस प्रकार अतिप्रसंग जैनोंके ऊपर आता है, जैसा कि अडतालीसवे वार्तिकमें उन्होंने हमारे ऊपर कहा था । यदि जैनजन निश्चयकाल द्रव्य आदिके समान उन व्यवहार काल आदि पर्यायोंका नित्यपना मानोगे तो केवल अन्वय सिद्धि होचुकनेपर भी व्यतिरेककी सिद्धि तो कथमपि नहीं होसकेगी। तथा काल आदिकी नित्य पर्यायों द्वारा सदा ही.उन कार्योंकी उत्पत्ति होती रहेगी। यों स्थावर आदिकोंकी उत्पत्तिमें सिसृक्षाको जैसे जैनोंने निमित्तकारण नहीं बनने दिया था, उसीके समान काल आदि पर्यायोंको भी निमित्तकारणपन नहीं होसकनेका प्रसंग जैनोंके यहां प्राप्त हुआ। यहांतक कोई पण्डित कह रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि वे महाशय तत्त्वव्यवस्थाके ज्ञाता नहीं है क्योंकि स्याद्वादियोंके यहां अपने, अपने, कार्योंकी उत्पत्तिमें निमित्त होरहे काल आदि पर्यायोंको निमित्तकारणपना सिद्ध होरहा है। उन काल आदि पर्यायोंकी उत्पत्तिमें भी उससे पूर्ववर्ती काल आदि पर्यायोंको निमित्तपना था, उन पर्यायोंकी भी निमित्तकारण पूर्व, पूर्व कालकी कालादि पर्यायें थीं । इस प्रकार बीजांकुर, मुर्गी अंडा, द्रव्य कर्म, भाव कर्म, आदिके समान उन पर्यायोंका पूर्वकालीन पर्यायोंके साथ होरहे निमित्तनैमित्तिक भावको अनादिपना है। इस कारण अनवस्था दोषका अवतार नहीं होपाता है। भावार्थ-कालाणुये द्रव्य हैं, वे प्रतिक्षण परिणामोंको धारती हैं। जगतके संपूर्ण कार्योकी बर्तनामें काल निमित्तकारण है। अन्य कार्योंमें कालपरमाणुओंके परिणमन जैसे निमित्त हैं उसी प्रकार इस समयके काल परिणामोंका निमित्तकारण पूर्वसमयवर्ती कालपरिणाम हैं, और पूर्व समयकी काल पर्यायोंका निमित्तकारण उससे पहिलेके समयकी कालपर्यायें हैं, यों अनादिसे अनन्तकालतक प्रक्रम चल रहा है । घडियोंकी ठीक ठीक चाल को पहिली पहिली घडिया ठीक बताती चली आ रही हैं । पहिले पहिले बांटोंसे उत्तरोत्तरके बांट ठीक ठीक तोलकर परीक्षित कर लिये जाते हैं । देखिये, अन्य द्रव्योंके परिणमन कालद्रव्यके अधीन है । किन्तु कालद्रव्यके उत्तरोत्तर समयवर्ती परिणमन पूर्व पूर्वकाल पर्यायोंके अधीन हैं। आकाश द्रव्य अन्य अनन्तद्रव्योंको अवगाह देरहा स्वयंको भी अवगाह देता है । अधर्म द्रव्य निजका भी स्थापक है। यों कथंचित् स्वतंत्रताके उपज रहे भी प्रतिनियतकाल आदि पर्यायोंकी सर्वत्र और सर्वदा उत्पत्ति नहीं बन सकती है । दूसरी बात यह भी है कि सर्वथा नित्यपना हमारे यहां स्वीकार नहीं किया गया है । अर्थात्-हम चाहे जीवद्रव्यकी पर्याय होय, चाहे काल, आकाश, आदि द्रव्यकी पर्याय होय, सम्पूर्ण पर्यायोंको नियत हो रहे निमित्त नैमित्तिक भावसे गुंथा हुआ मानते हैं । पूर्व समयकी पर्यायें उत्तरसमयवर्ती कार्योंको बनाती हैं । अतः महेश्वरकी सिसृक्षाका सादृश्यकाल आदि पर्यायोंमें लागू नहीं हो पाता है काल आदि पर्यायोंके निमित्तपनका मार्ग निर्दोष है ।