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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
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इस प्रकरणमें ईश्वर करके ही वह नित्य इच्छा भी व्याख्यान कर दी गयी समझ लेनी चाहिये। कारण कि वह इच्छा प्रकृतसाध्यका अतिक्रमण करनेवाली है । अतः अन्वयको धार रही भी वह इच्छा कहीं भी अन्य स्थलोंपर व्यतिरेकको धारनेवाली नहीं होनेसे व्यवस्थित नहीं समझी जायगी । भावार्थ-व्यापक नित्य ईश्वरका जैसे स्थावर आदि कार्योंके प्रति अव्यभिचारी कार्यकारणभाव नहीं घटता है । उसी प्रकार साधे जा रहे जन्य कार्योसे अतिरिक्त स्थलोंपर भी पायी जा रही नित्य सिसृक्षा कोरे अन्वयसे ही कहीं कारणपने करके व्यवस्थित नहीं हो सकती है।
नन्वेवं कालादिपर्ययस्य स्वकार्योत्पत्तौ निमित्तभावमनुभवतः प्रादुर्भावे यद्यपरः कालादिपर्यायो न निमित्तं तद्वदन्यकार्योत्पत्तावपि कालादिपर्यायो निमित्तं माभूत् , अथ निमित्तं तदुत्पत्तावप्यपरो निमित्तमित्यनवस्था स्यात् कालादिपर्यायस्य कारणमन्तरणोत्पत्ती देशकालादिनियमानुपपत्तेः सर्वत्र सर्वदा भावात्सर्वकार्याणामनुपरतोत्पत्तिप्रसंगः । तस्य नित्यत्वे कालादिद्रव्यवधतिरेकासिद्धिरन्वयमात्रसिद्धावपि सर्वदोत्पत्तिस्तेषामनिमित्तत्वप्रसंग: सिसृक्षावत्स्थावराद्युत्पत्ताविति केचिन, तेपि न तत्त्वज्ञाः। स्याद्वादिनां स्वकार्योत्पत्तिनिमित्तस्य कालादिपर्ययस्य निमित्तत्वसिद्धेस्तदुत्पत्तावपि तत्पूर्वकालादिपर्यायस्य निमित्तत्वमित्यनादित्वानिमित्तनैमित्तिकमावस्य तत्पर्यायाणां बीजांकुरादिवदनवस्थानवतारात् । कथंचित्स्वातन्त्र्येणोत्पद्यमानस्यापि सर्वत्र सर्वदा च भावानुत्पत्तेः नित्यत्वानभ्युपगमाच्च ।
___ यहां कोई कर्तृवादी पण्डित अपने पक्षका अवधारण करनेके लिये आक्षेप उठा रहे हैं कि इस प्रकार जैनसिद्धांत अनुसार अभीष्ट होरहे कार्यकारणभावमें भी गोटाला मच जायगा, जैनोंने काल, आकाश, अदृष्ट, आदि पर्यायों को अपने अपने कार्योंकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण माना है। जैनोंने जैसे हमारी ईश्वरसिसृक्षा पर कुचोद्य उठाया है हम भी उनके यहां माने गये कारणों पर आक्षेप चला सकते हैं कि अपने कार्योंके उपजानेमें निमित्तकारणपनका अनुभव कर रहे काल आदि पर्यायोंकी उत्पत्तिमें यदि दूसरे काल आदि पर्याय निमित्तकारण नहीं हैं, तब तो उन्हीं काल आदि पर्यायोंके समान अन्य कार्योंकी उत्पत्तिमें भी काल आदि पर्याय निमित्तकारण नहीं होवें । अब यदि काल आदि पर्यायोंकी उत्पत्तिमें दूसरे काल आदि पर्यायोंको निमित्तकारण माना जायगा तब तो उन दूसरे काल आदि पर्यायोंकी उत्पत्तिमें भी तीसरे काल आदि पर्यायनिमित्त कहने पडेंगे । तीसरोंकी उत्पत्तिमें चौथे काल आदिको मानते मानते अनवस्था दोष होगा । जिज्ञासाके शान्त होजाने पर ज्ञापकपक्षकी अनवस्था कदाचित् कृपा करती हुयी निवृत्त होसकती है किन्तु कारक पक्षकी निष्ठुर अनवस्था एक बार गले लगी, पुनः कभी छूटती नहीं है । यदि जैन महाशय काल आदि पर्यायोंकी कारणके विना ही उत्पत्ति मान बैठेंगे, तब