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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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सिसृक्षान्तरतस्तस्याः प्रसूतावनवस्थितेः। स्थावरादिसमुद्भतिर्न स्यात्कल्पशतैरपि ॥ ४६ ॥
उस ईश्वरकी सृजनेके लिये हुयी इच्छाको नित्यपनका अभाव होजानेसे और अव्यापक होजानेसे अदृष्टके समान महेश्वरकी इच्छासे जगत्वर्ती यावत् कार्योकी उत्पत्ति हो जाती है। इस प्रकार कोई पण्डित कह रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि उन पण्डितोंका कहना युक्तिरहित है । क्योंकि महेश्वरकी इच्छा जब अनित्य है तो दूसरी सिसृक्षाके बिना ही उस सिसृक्षाकी उत्पत्ति माननेपर तिस ही प्रकार हेतुका व्यभिचारदोष लग जायगा । अर्थात्-सिसृक्षामें कार्यत्वहेतु ठहर गया, किन्तु दूसरी सिसृ. क्षाको उसका निमित्तकारणपना नहीं प्राप्त हुआ । हां, यदि ईश्वरकी अनित्य सिसृक्षाका जन्म दूसरी सिसृक्षासे माना जायगा, और उस दूसरी अनित्य सिसृक्षाके प्रस्व करनेमें तीसरी सिसृक्षाको हेतु माना जायगा, यों चौथीमें पांचवीं स्रष्टुमिच्छा, और पांचवींमें छठी, आदि सिसृक्षाओंको कारण मानते मानते अमक्स्था होजायगी। अनेक सिसृक्षाओंको उत्पन्न करनेमें ही ईश्वरकी सिसृक्षाओंका बल निवट जायगा। वों सैकडों कल्प कालों करके भी स्थावर आदि कार्योकी समुचित उत्पत्ति नहीं हो सकेगी।
तद्भोक्तृप्राण्यदृष्टस्य सामर्थ्यात्सा भवस्य चेत् । प्रसूतिः स्थावरादीनां तस्मादन्वयनान्न किम् ॥ ४७ ॥ स्वातंत्र्येण तदुद्भूतो सर्वदोपरमच्युतेः। सर्वत्र सर्वकार्याणां जन्म केन निवार्यते ॥ ४८ ॥
उन स्थावर आदि कार्योका भोग करनेवाले प्राणियोंके अदृष्ट ( पुण्यपापसे ) की सामर्थ्यसे बह ईश्वरकी इच्छा अनादि कालसे उपज रही यदि मानी जायगी तब तो अदृष्टके होनेपर स्थावर आदिकोंका उपजना यों अन्वयके बन जानेसे उस अदृष्टसे ही साक्षात् स्थावर आदि कार्योंकी उत्पत्ति ही क्यों नहीं मान ली जावे । परम्परासे अदृष्टको कारण माननेकी अपेक्षा पुण्य, पापको, अव्यवहित कारण मानना समुचित है । अदृष्टकी अधीनताके विना ही यदि स्वतन्त्रता करके उस सिसृक्षाकी उत्पत्ति मानी जायगी तब तो ईश्वरकी सिसृक्षायें सर्वदा उपजती रहेंगी। कदाचित् भी उन इच्छाओंकी उत्पत्तिका विराम नहीं हो सकेगा। ऐसी दशामें सभी स्थलोंपर सम्पूर्ण कार्योंका उपजना भला किस करके रोका जा सकता है ? अर्थात्-विना कारण अपनी स्वतन्त्रतासे उपज रहे कार्योंमें नियत देश वा नियत कालकी सीमा नहीं रह पाती है । सभी कार्य अटोक उपजते ही रहेंगे ।
व्याख्यातात्रेश्वरेणैव नित्या साध्यातिरेकिणी । कचियवस्थितान्यत्र न स्यादन्वयभागपि ॥ ४९ ॥