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________________ १२४ तत्त्वार्थलोकवार्तिके AMALA तावन्तः प्रत्येकं स्वभावभेदाः” इस नियम अनुसार अवगाह देनेमें उदासीन अप्रेरक कारण हो रहे आकाशमें भी वैसी वैसी न्यारी न्यारी परिणतियां माननी पडती हैं । एक एक वस्तुमें अनन्ते स्वभाव हैं । अतः अव्यापक देशांशोंसे अभिन्न हो रहे व्यापक आकाशव्यमें कथंचित् असर्वगतपना भी समझ लिया जाय । तथा चौदह राजू ऊंचे या तीनसौ तेतालीस ३४३.घन राजू प्रमाण पूरे लोकमें व्याप रहे भी धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायका द्रव्यरूपते ही नित्यपना स्वीकार किया गया है। पर्यायोंकी अपेक्षा वे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय दोनों असर्वगत और अनित्य हैं । अर्थात्-द्रव्यत्व गुणके अनुसार प्रतिक्षण नूतन पर्यायोंको धार रहे धर्म, अधर्म, द्रव्यके भले ही सदृशपरिणाम होते रहें, किन्तु अनित्यपर्यायोंसे अभिन्न हो रहे धर्म, अधर्म द्रव्य सर्वथा नित्य नहीं कहे जाते हैं । कोई भी द्रव्य कदाचित् भी पर्यायोंसे रीता नहीं है । सम्पूर्ण पदार्थ द्रव्यरूपसे नित्य और पर्यायरूपसे अनित्य हो रहे कथंचित् नित्यानित्यात्मक हैं । घोडा, मछली, पथिक, विद्यार्थी, आदिकी उन उनके नियत देशोंमें गति करानेवाली धर्मद्रव्य और स्थिति करानेवाली अधर्मद्रव्य अपनी न्यारी न्यारी प्रयोजक, अव्यापक पर्यायोंके साथ तदात्मक हो रहीं अव्यापक भी हैं । लोकाकाश स्वयं एक छोटासा अव्यापक पदार्थ है । उसमें भर रहे धर्म, अधर्म, द्रव्य दोनों वैसे ही अव्यापक हैं । तिस कारणसे काल, आकाश, धर्म, अधर्म, इन चारों पदार्थोंको अपने, अपने कार्योकी उत्पत्ति करनेमें निमित्तकारणपना युक्तिपूर्ण सध जाता है। सभी प्रकारोंसे कोई विरोध नहीं आता है । हां, सर्वथा नित्य या व्यापक हो रहा तुम्हारा ईश्वर विचारा स्थावर आदि कार्योका निमित्तकारण नहीं बन सकता है । ___ यद्येवं महेश्वरगुणस्य सिसृक्षालक्षणस्यानित्यत्वादसर्वगतत्वात् च तन्निमित्तत्वं स्थावरादीनां युक्तं व्यतिरेकमसिद्धरिति पराकूतमनूद्य दूषयति । ईश्वरयादी कह रहे हैं कि यदि इस प्रकार आप जैन अनित्य और अध्यापक पदार्थको स्थावर आदि कार्योका निमित्तकारण माननेमें विशेष अभिरुचि रखते हैं तो महेश्वरके सृजनेकी इच्छा स्वरूप गुणको अनित्यपन और अव्यापकपन होनेसे उस गुणको स्थावर आदि कार्योका निमित्तकारणपना उचित बैठ जाता है। ईश्वरकी अव्यापक इच्छाके साथ कार्योका देशव्यतिरेक और अनित्य इच्छाके साथ कार्योका कालव्यतिरेक भी प्रसिद्ध होजाता है इस प्रकार दूसरे पौराणिकोंके चेष्टितका प्रथम अनुवाद कर श्री विद्यानन्द आचार्य दूषणप्रयोग करते हैं । महेश्वरसिसृक्षाया जगजन्मेति केचन । तस्याः शाश्वततापायादविभुत्वाददृष्टवत् ॥ ४४ ॥ तदयुक्तं महेशस्य सिसृक्षांतरतो विना । सिसृक्षोत्पादने हेतोस्तथैव व्यभिचारतः ॥४५॥ .
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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