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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ४२३ काल, आकाश, आदि द्रव्योंकी पर्यायोंको भी नित्यपन, व्यापकपन, आदिकी अप्रसिद्धि होनेसे कार्योंके करनेमें निमित्तकारणपना सभी प्रकारोंसे विरुद्ध नहीं पड़ता है। अर्थात्-अर्थ क्रियाओंको करनेवाली अनित्य पर्यायोंसे कथांचिद् अभिन्न हो रहे काल आदि द्रव्योंको सम्पूर्ण कार्योंके प्रति निमित्तपना अव्याहत है। न हि कालाकाशादिपर्यायाणां नित्यत्वं सर्वगतत्वं वा प्रसिद्धं कालाणूनामेव द्रव्यर्थादेशान्नित्यत्वोफ्गमात् । निःपर्यायस्य नित्यस्य सर्वगतस्य च कालस्य परोपगतस्याप्रमाणकत्वात् , सर्वगतस्य नित्यस्य चाकाशद्रव्यस्यैव व्यवस्थापनान्निःपर्यायस्य तस्यापि ग्राहकप्रमाणाभावात् । धर्मास्तिकायस्याधर्मास्तिकायस्य च लोकव्यापिनोपि द्रव्यत एव नित्यत्वोपगमात् पर्यायतोऽसर्वगतत्वाइनित्यत्वाच्च । ततो युक्तं स्वकार्योत्पत्तौ निमित्तत्वं सर्वथा विरोधाभावात् । काल, आकाश, आदि द्रव्योंकी पर्यायोंका सर्वथा नित्यपना अथवा सर्वगतपना प्रसिद्ध नहीं है। जैनसिद्धान्त अनुसार कालाणुलोंको ही द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे नित्यपना स्वीकार किया गया है । दूसरे विद्वान् वैशेषिकोंने कालको पर्यायरहित और नित्य, तथा सर्वगत जो स्वीकार किया है, वैसा कालद्रव्यको सिद्ध करनेमें उनके यहां कोई प्रबल प्रमाण नहीं प्रवर्तता है । अतः पर्यायरहित नित्य, व्यापक कालद्रव्यकी प्रमाणोंसे सिद्धि नहीं हो सकनेके कारण वह कालद्रव्य बिचारे पौराणिकोंके नित्य, व्यापक, ईश्वरका दृष्टान्त या कटाक्षस्थल नहीं बन सकता है । हां, जिनागममें सर्वगत और नित्य हो रहे आकाशद्रव्यकी ही तो व्यवस्था कराई गई है। किन्तु सम्पूर्ण द्रव्य स्वकीय द्रव्यत्वगुणके अनुसार प्रतिक्षण नवीन नवीन पर्यायोंको धारण करते हैं। कोई द्रव्य कूटस्थनित्य नहीं है । पर्यायोंसे रहित हो रहे सर्वथा नित्य उस आकाशका भी ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है। अतः अनित्यपर्यायोंके साथ तादात्म्य सम्बन्धका अनुभव कर रहा कथंचिद् अनित्य आकाश ही यावत् कार्योका निमित्त है । इस कारण सर्वथा नित्य और सर्वथा व्यापक हो रहे ईश्वरका उपमान कथंचित् अनित्य आकाश भला कैसे हो सकता है ? यानी नहीं हो सकता है । अर्थात्-जब कि अखण्डित अनेक देशीय आकाश द्रव्यके देशांशरूप प्रदेश कल्पित कर लिये जाते हैं । मुख, कूप, गृह, गुदस्थान, शुद्धभाजन, अशुद्धभाजन, ये सब रीते स्थानस्वरूप हो रहे आकाशप्रदेश एक ही नहीं है । स्वर्गप्रदेश, नरक, आकाश, जम्बूद्वीप, स्वयम्भूरण, वसनाली, स्थावर लोक, ये सब आकाशके न्यारे न्यारे प्रदेशोंपर व्यवस्थित हैं । जो आकाश सिद्ध परमात्माओंको अवगाह दे रहा है, वह आकाश नारकियोंको स्थान नहीं दे सकता है । आकाशके प्रदेशोंमें गति नहीं है । मालवा, पंजाब, बंगाल, यूरोप, अमेरिका, आष्ट्रिया, आष्ट्रेलिया, आदि आकाशकी पोलें न्यारी न्यारी हैं। जहां प्रभूत जल या बलवान् नकुल प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुये हैं, वहां स्वल्प अग्नि या सर्पको अवकाश नहीं मिल पाता है । यद्यपि अग्नि, जल या नकुल, सपं आदिमें निजकी गांठके विरोध आत्मक परिणाम विशेष हैं, फिर भी “ यावन्ति कार्याणि
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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