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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
नश्वरत्वाददृष्टस्यासर्वगत्वाच सिध्यति । व्यतिरेकस्तत्र तस्य (स्यात) स्थावरादिनिमिचता ॥ ४२ ॥
नाशशील (अनित्य) होनेसे और अव्यापक होनेसे अदृष्टके साथ उन स्थावर आदिकोंमें कालव्यतिरेक या देशव्यतिरेक सिद्ध हो जाता है । अतः उस अदृष्टको स्थावर आदि कृतक पदार्थीका निमित्तकारणपना सध जाता है । कोई अनुपपत्ति नहीं है। __न ह्यदृष्टं धर्माधर्मसंज्ञितं कूटस्थं सर्वगतं वा महेश्वरवदिष्यते यतस्तस्य देशकालव्यतिरेको न सिध्येत् । सित्यादिदृष्टसामग्रीसद्भावेपि कचित्स्थावरादीनामनुपलंभाददृष्टकारणत्वं सिध्यत्येव । कथमेवं तदुत्पत्तौ कालादेहेतुत्वमिति सर्वगतस्य व्यतिरेकासिद्धेश्वरवदिति वदंतं प्रत्याह।
धर्म और अधर्म इस संज्ञाको प्राप्त हो रहे अदृष्टको हम जैम तुम्हारे महेश्वरके समान कूटस्थ नित्य अथवा सर्वत्र प्राप्त हो रहा व्यापक नहीं अभीष्ट करते हैं, जिससे कि उस अदृष्टका देशव्यतिरेक या कालव्यतिरेक नहीं सिद्ध हो सके । साधारण जीवोंद्वारा कारणपने करके देखी जा रही पृथिवी, बीज, आदि सामग्रीका सद्भाव होनेपर भी किसी देशमें या किसी समय स्थावर आदि कार्योकी उत्पत्ति हो रही नहीं देखी जाती है। अतः अदृष्टको कार्योका कारणपना सिद्ध हो जाता है । अर्थात्-खेतीमें वाणिज्यलाभमें, बढिया नीरोगतामें पुण्यको और अतिवृष्टि अनावृष्टि, आर्थिकहानिमें, सरोगतामें, दारिद्यमें, नाव डूब जाना, रेलगाडी लड जाना, वायुयानघात, आदि कार्योंमें दृष्टकारणोंका व्यभिचार दीख रहा होनेसे पापरूप अदृष्टको कारणपना स्पष्ट रीत्या प्रसिद्ध हो रहा है । जहां जहां या जब जब पुण्य, पाप हैं, तहां, तहां तब तब स्थावर आदि कार्योकी उत्पत्ति हो जाती है । और जहां जहां या जब जब अदृष्ट नहीं वहां वहां या तब तब लौकिक कार्य नहीं उपज पाते हैं । यह अन्वय व्यतिरेक प्रसिद्ध है। यहां कोई पूछता है कि अदृष्ट तो अव्यापक, अनित्य है । किन्तु काल, आकाश, द्रव्य तो नित्य और व्यापक हैं । अतः इस प्रकार व्यतिरेकको साधनेपर यदि कार्य कारणभाव माना जायगा तो उन स्थावर आदिकोंकी उत्पत्तिमें सर्वगत हो रहे काल आदिको भला निमिसकारणपना किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा ? क्योंकि ईश्वरके समान नित्य, व्यापक, काल, भादिका देशव्यतिरेक या कालव्यतिरेक असिद्ध है, इस प्रकार कह रहे वादीके प्रति श्री विद्यानन्द आचार्य समाधानवचनको अग्रिम वार्त्तिक द्वारा कहते हैं । उसको सुनो ।
कालादिपर्ययस्यापि नित्यत्वाद्यप्रसिद्धितः । सर्वथा कार्यनिष्पचौ हेतुत्वं न विरुध्यते ॥ ४३ ॥