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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ४२१ पाया जा सकता है । जिस देशमें ईश्वर नहीं वहां स्थावर आदिक कर्म नहीं है, इस व्यतिरेकको घटानेके लिये तुम्हारे पास कोई स्थल शेष नहीं है । तुम्हारा माना हुआ ईंश्वर सर्वत्र प्राप्त हो रहा है । तथा पृथिवीमें इस नित्य ईश्वरकी सर्वदा स्थिति बनी रहनेसे यह कालव्यतिरेक भी नहीं बन सकता है कि जब जब ईश्वर नहीं तब तब स्थावर आदि कार्य नहीं । हां, सर्वत्रव्यापक हो रहे ईश्वरका केवल एक अन्वय ही तो स्थावर आदिकोंको उस ईश्वर करके जन्यपनकी सिद्धि करानेवाला नहीं है । क्षित्युदकबीजादितया कारणान्वयव्यतिरेकात् स्थावरादीनां भाव्यभावकयोरुपलंभान्न बुद्धिमत्कारणान्वयव्यतिरेकानुविधानं । न हि बुद्धिमतो वेधसः क्वचिद्देशे व्यतिरेकोस्ति सर्वगतत्वात्, नापि काले नित्यत्वात् । तथा च नान्वयो निश्चितः संभवति तद्भावाविर्भावदर्शनमात्रान्वयो वा स न तज्जन्यत्वं साधयति करभादेर्भावे धूमाविर्भावदर्शनात्तज्जन्यत्वसिद्धिप्रसंगीत् । 1 भूमि, जल, बजि, वायु आदि स्वरूपकरके कारणों के अन्वय और व्यतिरेकसे स्थावर आदि कार्योंके उत्पाद्य, उत्पादकभावका उपलंभ होरहा है। अतः किसी बुद्धिमान् कारणके साथ स्थावर आदिकोका अन्वयव्यतिरेक अनुसार, विधिविधान नहीं देखा गया है। पौराणिकोंके बुद्धिमान् स्रष्टाका किसी भी देशमें व्यतिरेक नहीं पाया जाता है। क्योंकि वह सर्वगत माना गया है तथा किसी कालमें भी ईश्वरका व्यतिरेक नहीं मिलता है । क्योंकि ईश्वर अनादि अनंत कालतक नित्य मान लिया है और तिस प्रकार कोई भी देशव्यतिरेक या कालव्यतिरेक नहीं बननेपर अन्वयका निश्चय हो चुकना भी नहीं सम्भवता है । क्योंकि हेतुका प्राण विपक्षव्यावृत्तिस्वरूप व्यतिरेक है । व्यतिरेक नहीं होनेपर अन्वय हो रहा भी आनश्चित है । एक बात यह भी है कि व्यापक नित्य हो रहे उस विधाताका सद्भाव होने पर स्थावर आदिकोंका आविर्भाव होना देखने मात्र से हो रहा वह अन्वय तो स्थावर आदिकों के उस ईश्वरसे जन्यपनको नहीं साध डालता है । यों तो ऊँटका बच्चा, कण्डाओं को ढोनेवाले गधा आदि तटस्थ पदार्थोंका सद्भाव होनेपर धुएंका आविर्भाव देखा जाता है । इतनेसे ही धूमको उस ऊंट आदिसे जन्यपनकी सिद्धि होजानेका प्रसंग आजावेगा । प्रत्येक कार्य होनेके निकट देशमें अनेक उदासीन पदार्थ पडे रहते हैं । एतावता उनमें “ कार्यकारणभाव " का प्रयोजक अन्वय बन रहा नहीं माना जाता | अन्यथा तुम्हारे यहां व्यापक मानी जारहीं अन्य जीवात्माओं या आकाशके साथ भी सुलभतया अन्वय बन जानेसे ईश्वर के समान अन्य आत्मायें भी संपूर्ण कार्योंका निमित्तकारण बन बैठेंगे, (बैठेंगी ) जो कि हम, तुम, दोनोंको इष्ट नहीं है । कथमदृष्टस्य स्थावरादिनिमित्तत्वमित्याह । यहां कोई पूंछता है कि तब तो आप जैन यह बताओ कि स्थावरजीवोंका पुण्य, पाप, या भोक्ताजीवोंका पुण्य, पाप, भला उन स्थावर आदिकोंका निमित्तकारण कैसे होजाता है ? पुण्य, पापके साथ स्थावर आदिकोंका अन्वय और व्यतिरेक तुम कैसे बना सकोगे ? समझाओ ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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