________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
३१
शद्वके साथ अन्य पदार्थोंको प्रधान रखनेवाली बहुब्रीहि समास नामकवृत्ति करने लेनी चाहिये, जैसे कि पहिलेके पूर्व सूत्रोंमें इतरतर समास करते हुये बहुब्रीहि समास किया गया है, वैसा ही यहां करलेना । पूर्व सूत्र के समान यहां भी दूसरे सूत्रमेंसे "यथाक्रमम्” इस पदकी अनुवृत्ति होजाती है तिस कारण उद्देश्य विधेय पदोंका दोनों ओरसे सम्बन्ध करलिया जाता है कि गतिके चार भेद हैं, चार भेदवाली कषाय है लिंग तीन भेदोंको धारता है, मिथ्यादर्शनका एक प्रकार है, यहां अदर्शनभावको न्यारा नहीं कहा है, क्योंकि दर्शनावरण के उदय होनेपर हुये अन्धकल्प अदर्शनभावका उस मिथ्यादर्शनमें ही अन्तर्भाव होजाता है तथा अज्ञानका भेद एक ही है, असंयतपना एक भेदको लिये हुये है, असिद्धत्व एक प्रकारका है । लेश्या के छह भेद हैं, यद्यपि कषाय भावसे सोलह कषाय और लिंगसे तीन वेद पकडे जासकते हैं । अतः हास्य आदिक छह नोकषायके उदयसे होनेवाले औदयिक भाव शेष बच जाते हैं । फिर भी सहचारीपना होनेसे हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, इन औदयिक भावोंका अन्तर्भाव लिंगमें करलेना सूत्रकारको विवक्षित है । अतः सूक्ष्म कथनरूप सूत्रमें विस्तार नहीं किया गया है, ज्ञानावरण कर्म और अन्तराय कर्मका अविनाभाव होनेसे अलब्धियोंका अज्ञान भावमें ही अन्तर्भाव होजायगा जैसे कि " काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् " यहां काकपद सभी दधि उपघातक पशुपक्षियोंका उपलक्षण है 1 उसी प्रकार जीवविपाकी जातिकर्मके उदयसे होनेवाले या त्रस, स्थावर उच्चैर्गोत्र, मनुष्यायुः, सात, असात, तीर्थकरत्व, आदि अघातिया कर्मोकी प्रकृतियों के उदयसे होनेवाले औदयिक भावोंका गि ग्रहणसे उपलक्षण होजाता है । इस कारण जीवविपाकी घाती या अघाती किसी भी कर्मके उदयसे होनेवाले औदायिक भेदका असंग्रह नहीं हुआ । इन ही इकईस भेदोंमें सब ही औदयिक भावों का अन्तर्भाव हो जाता है ।
कुतः पुनर्गतिनामादिकर्मणामुदयः सिद्धो यतोऽमीषामेकविंशतिभावानामौदायकत्वं सिध्यतीत्याह । किसी विनीत शिष्यका प्रश्न है कि महाराजजी, फिर यह बताओ कि आत्माओं में गतिनामकर्म चारित्रमोहनीय, पुंवेद आदिक कर्मोंका उदय किस प्रमाणसे सिद्ध है ? जिससे कि उन गति, कषाय, आदिक इस भावोंका औदयिकपना सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यान्द स्वामी आत्मगौरवसहित उत्तरको कहते हैं ।
अन्यथा भावहेतूनां केषांचिदुदयः स्थितः । कालुष्यवित्तितस्तद्वद्गतिनामादयस्तु ते ॥ १ ॥
आत्मा शुद्ध स्वाभाविक परिणामोंको अन्य प्रकार परिणमन करानके हेतुभूत हो रहे किन्हीं निर्नामक पदार्थोंका उदय होना आत्मामें व्यवस्थित है । ( प्रतिज्ञावाक्य ) क्योंकि संसारी आत्माओंके हो रही कलुषताविशेषकी सम्वित्ति हो रही है । उसीके समान दूसरे दूसरे स्वाभाविक परिणामोंका अन्यथाभाव करानेवाले किन्हीं अविवक्षित पदार्थोंका उदय भी अनुमान प्रमाण द्वारा निर्णीत हो रहा