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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
है । अतः सर्वनाम किम् शद्बके वाच्य हो रहे वे अन्यथा भावके हेतु ही तो गतिनाम, कषाय वेदनीय, अकाषय वेदनीय, आदिक विशेष कर्म हैं।
स्वयमगतिस्वभावस्य पुंसो नरकादिगतिपरिणामविशेषः कालुष्यमन्यथाभावाद्वेद्यते तद्वदकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्यास्वभावस्य सतस्तस्य कषायादिपरिणामकालुष्यभाव एव तद्वित्तिरेव वात्मनोन्यथाभावहेतूनां केषांचिदुदयं साधयति, तदभावे सर्वथानुपपद्यमानत्वात् परिदृष्टहेतूनां तत्र व्यभिचारात् । तथा सति येषामुदयाद्गत्यादयः परिणाम विशेषाः कादाचित्कास्ते गतिनामादयः कर्मप्रकृतिभेदा इति परिशेषादवसीयते ।
जो परद्रव्यके बन्धसे विविक्त हो रही सिद्ध अवस्थाके परिणाम हैं, वे ही आत्माके स्वतः अनन्त कालतक ठहरनेवाले स्वभाव माने जाते हैं । शेष अन्यथा स्वरूप हो रहे परिणाम तो विभाव अवस्था है । आत्मा स्वयं अपने डीलसे तो जाना आना श्वास, उच्छ्रासके साथ घटना बढना, देवे पर्यायमें जाना, इत्यादिक गमन परिणामोंसे रीता है । उसको कोई लढनेकी, मोठे होनेकी, यहां वहां जानेकी आकुलता नहीं है । तो भी स्वयं अगमन स्वभाववाले हो रहे आत्माके नरकगतिमें गमन, तिर्यंच आदि गतियोंमें गमन ऐसे विशेष परिणमन स्वरूप कलुषतायें हुई स्वभावोंका अन्यथाभाव हो जानेसे स्वसंविदित हो रही हैं । उसीके समान स्वभावतः कषायरहित स्वभाववाले चारित्र स्वरूप आत्माके कषायरूप कलुषतायें अनुभूत हो रही हैं। तथा निश्चयनयसे मिथ्यादर्शन रहित शुद्ध सम्यग्दर्शनस्वभाववाले आत्माके मिथ्यात्वभाव वेदा जा रहा है । और अज्ञानरहित ज्ञान स्वभाववाले आत्माके किसी पराधीनतावश अन्यप्रकारसे होरही अज्ञानरूप कलुषता प्रतीत की जारही है तथा असंयतपना स्वभावसे खाली संयमीस्वरूप आत्माके परतंत्र होकर असंयत परिणाम रूप कलुषताकी वित्ती होरही है। इसी प्रकार असिद्ध अवस्थासे रहित सिद्धस्वभाववाले आत्माके असिद्धत रूप कलुषताका सद्भाव है । द्रव्यार्थिक दृष्टिसे लेश्यारहित शुद्ध अलेश्य स्वभाववाले आत्माके संसार अवस्थामें कषायसंयुक्त योगप्रवृत्तिरूप कलुषता परिणाम होरहे हैं । वे कलुषताभाव ही आत्माके स्वभाव अवस्थासे अन्यथाभाव हो जानेकी अवस्थाके कारण होरहें किन्हीं परद्रव्यरूप हेतुओंके उदयको साध देते हैं अथवा उन गति, कषाय, आदि अन्यथाभूत अस्वाभाविक परिणामोंका संचेतन होना ही आत्माके अन्यथा परिणामोंको करानेवाले किन्हीं हेतुओंके उदयको साध देता है । क्योंकि परतंत्र करनेवाले उन हेतुओंके न होनेपर शुद्ध आत्माके सभी प्रकारसे गति, कषाय आदि परिणामोंकी उपपत्ति नहीं हो पाती है । अदृष्ट कर्मोके सिवाय किन्हीं दूसरे परिदृष्ट पदार्थोको यदि आत्माके उन गति, कषाय आदि भाव करानेमें कारण माना जायगा तो व्यभिचार दोष आता है। अर्थात्-गति आदिक भावोंका सूक्ष्म कर्मोको कारण माननेमें अन्वय और व्यतिरेक दोनों बनजाते हैं । किन्तु अन्य उत्साह, शरीर, इच्छायें, इष्टपदार्थ, स्त्री, पुरुष, कुदेव, कुगुरु आदिक इष्टपदार्थोको ही उन