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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः यदि वह संसारी जीवों की परतंत्रता वैशेषिकों के यहां धर्म, अधर्मस्वरूप अदृष्टका सद्भा होनेसे मानी जायगी तब तो उस आत्मा के पहिले कर्मशरीर के साथ सम्बन्ध सिद्ध हो गया, ( हो जाओ ) और वह कर्मका सम्बन्ध उससे भी पहिलेके दूसरे शरीरसे प्राप्त होकर सम्बन्धित हुआ समझा जायगा, यों जैनसिद्धान्तके सदृश तुमको भी मानना पडेगा । ४१३ शरीरमात्मनोऽदृष्टं पुद्गलात्मकमीरितं । सर्वथात्मगुणत्वेस्य पारतंत्र्यानिमित्तता ॥ २५ ॥ आत्माका कर्मशरीर जो अदृष्ट माना गया है, वह पुद्गलस्वरूप कहा गया है। यदि इस अष्टको सर्वथा आत्माका गुण माना जायगा तो अदृष्टको इस आत्माके परतंत्र होनेमें निमित्त कारणपना नहीं सध सकेगा । द्रव्यको वैसा का वैसा ही अनादि, अनन्त, जीवित रखनेवाले गुण हुआ करते हैं। अपने हाथ, पांव, पेट ही यदि अपनेको फंसाने लगें तो ऐसी दशामें कोई पुरुष जीवित नहीं रह सकता है । बाढ ही खेतको खा जाय तो रक्षा कौन कर सकता है I न हि सर्वथात्मगुणत्वे धर्माधर्मसंज्ञकस्यादृष्टस्यात्मपारतंत्र्यनिमित्तत्वं युक्तं बुद्धिवत् । इच्छाद्वेषयोरात्मगुणत्वेप्यात्मपारतंत्र्यनिमित्तत्वसिद्धेर्युक्तमेवेति चेन्न, तयोः सर्वथात्मगुणत्वाभावात् कर्मोदयनिमित्तत्वेन भावकर्मत्यवचनात् । तयोरेवात्मपारतंत्र्यस्वभावत्वाच्च न पार - तंत्र्यनिमित्तत्वं । मोहविशेषपारतंत्र्य एव हि पुरुषस्येच्छाद्वेषौ तदपरतन्त्रस्य कचिदभिलाषद्वेषासंभवात् । ततो न धर्माधर्मौ पुरुषगुणौ पुरुषपारतंत्र्यनिमित्तत्वान्मोहविशेषान्निगलादिवत् । किं तर्हि ? पुद्गलपरिणामात्मकौ तौ तत एव तद्वत् पुद्गलपरिणामविशेषात्मकत्वाच्चादृष्टस्यात्मशरीरत्वमुपगतमिति नौदारिकादिशरीर संबंधात्पूर्वमदृष्टवशवर्यात्मा निर्देहो युक्तः । यस्तु निर्देहो मुक्तात्मा स न कस्यच्छिरीरस्यारंभको भवति यतस्तद्वदीश्वरोप जगतो हेतुः स्यात् 1 यदि धर्म, अधर्म, इस संज्ञाको धारनेवाले अदृष्टको सभी प्रकारोंसे आत्माका गुण होना माना जायगा तो उस अदृष्टको आत्माकी परतंत्रताका निमित्तकारणपना समुचित नहीं पडेगा, जैसे कि आत्मा गुण होरही बुद्धि उसी आत्मा के " सन्निपातपरिभाषा अनुसार पराधीन नहीं कर डालती है । यदि वैशेषिक यों कहे कि इच्छा और द्वेषको आत्माका गुणपना होते हुये भी आत्मा की परतंत्रताका निमित्तपना सिद्ध होरहा है, जैनों के यहां भी इच्छा और द्वेषकरके संसारी आत्माओं के कर्म बन्ध होरहा अभीष्ट किया है । इस कारण धर्म अधर्म गुणों को भी आत्माकी परतंत्रताका निमित्तपना युक्तिपूर्ण ही है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उन इच्छा द्वेषों को सभी प्रकारों से आत्माका गुणपना नहीं है । कर्मोंके उदयको निमित्त पाकर हुये उन इच्छा और द्वेषों को भावकर्मप से 1 ,"
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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