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तत्त्वार्य लोकवार्तिके
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निरूपण किया गया है । औदयिक भाव आत्माके गुण नहीं हैं। गुण तो त्रिकालवर्ती, अनुजीवी, होते हैं । अपने आत्मलाभमें दूसरे पदार्थकी अपेक्षा नहीं करते हैं। पुण्य, पाप, या क्रोध, इच्छा, द्वेष आदि औदयिक भावको आत्माका गुण कहना गुणशद्वका भारी तिरस्कार करना है । दूसरी बात यह है कि परिपूर्ण चारित्रस्वरूप आत्माकी राग, द्वेष, मोह, इच्छा आदि विभावों करके परिणति होजाना ही तो परतंत्रता है । अतः आत्मा के विभावपरिणाम इच्छा और द्वेष तो परतंत्रस्वभाव ही हैं । परतंत्रता के 1 निमित्त नहीं हैं । मोहनीय कर्मकी क्रोध, लोभ, रति, अरति आदि विशेषप्रकृतियोंके उदयसे हुई विशेष मोहस्वरूप परतंत्रता ही तो आत्मा के इच्छा और द्वेषपरिणाम हैं । जो क्षीणमोह आत्मा उम्र 1 मोहनीय कर्मविशेषके पराधीन नहीं है, उसके कहीं भी अभिलाषा और द्वेष नहीं सम्भवते हैं । तित कारणसे यों अनुमान बना कर सिद्ध कर दिया जाता है कि धर्म और अधर्म ( पक्ष ) आत्मा के गुण नहीं हैं । ( साध्य ) आत्माकी परतंत्रता के निमित्तकारण होनेसे ( हेतु ) सांकल, लेज, वशीकरण चूर्ण आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस युक्तिसे धर्म, अधर्म या इच्छा द्वेष ये आत्माके परिणाम नहीं सध पाते हैं। तब तो यह अदृष्ट क्या पदार्थ है ? इसका समाधान यह है कि वे धर्म अधर्म (पक्ष ) पुद्गलद्रव्यके परिणामस्वरूप हैं ( साध्य ) । उससे ही यानी आत्मा के परतंत्रपनका निमित्त कारण बन रहे होनेसे ( हेतु ) उसीके समान यानी सांकल, जाल, पींजरा आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस अनुमान द्वारा अदृष्टको पुद्गलका परिणाम साध दिया है, जैसे कि यह स्थूल शरीर पुगलका परिणाम होनेसे आत्माका गुण नहीं होता हुआ आत्माका बहिरंगशरीर माना जाता है, उसी प्रकार पुद्गलद्रव्यका विशेष परिणामस्वरूप होनेसे अदृष्ट भी आत्माका सूक्ष्मशरीर स्वीकृत कर लिया जाता है । इस कारण जन्मते समय औदारिकादि शरीरोंके साथ सम्बन्ध होनेसे पहिले अदृष्टके वशमें वर्त रहा यह आत्मा सर्वथा देहरहित कहा जाय यह युक्तिपूर्ण नहीं है । अर्थात् - देह रचने के पहिले भी आत्मा अदृष्ट नामक सूक्ष्मशरीरसे युक्त हो रहा सशरीर है । निःशरीर नहीं है। हां, जो मुक्त आत्मा स्थूल, सूक्ष्म, सभी देहोंसे रहित है वह तो किसी भी शरीरका रच देनेवाला नहीं है । जिससे कि उस मुक्त आत्माके समान शरीररहित ईश्वर भी जगत्का निमित्त कारण हो जाता । भावार्थ अशरीर, मुक्त, आत्माके समान शरीररहित ईश्वर भी जगत्का निमित्तकारण होकर कर्त्ता नहीं है 1
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संप्रति सदेहेश्वरवादिमतमाशंक्य प्रतिविधत्ते ।
अब इस समय ग्रन्थकार ईश्वरको देहधारी माननेवाले पौराणिकवादियोंके मतकी आशंका उठाकर उस पौराणिकोंके मतका भी खण्डन करें देते हैं ।
क्षित्यादिमूर्तयः संति महेशस्य तदुद्भवे । स एव हेतुरित्यादि व्यभिचारो न चेद्भवेत् ॥ २६ ॥