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________________ ४१२ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके सकता है । एक बार छिलका निकाल देनेपर वह धान्य पुनः नहीं उग सकता है। इसी प्रकार अनादिकालसे कार्यकारणप्रवाहकरके कर्म नोकर्मोद्वारा सशरीर हो रहा आत्मा ही उत्तरोत्तर अनेक शरीरोंको बना लेता है । कर्म, नोकर्म, शरीरोंसे रहित हो गये शुद्ध सिद्धपरमेष्ठी पुनः शरीरोको नहीं रच पाते हैं । यदि यहां कोई अनवस्था दोष उठावे कि आत्मा इस वर्तमान शरीरको पूर्व शरीरसे सहित होकर बनावेगा और उस पूर्व शरीरको उससे भी पहिलेके शरीरसे सम्बन्धी होकर बनायेगा । यों पर, अपर, अनेक शरीरों की परिकल्पना करनेसे महान् अनवस्था दोष आता है । प्रन्थकार कहते हैं कि ऐसी अनवस्था दोषस्वरूप नहीं है। प्रत्युत गुण है । क्योंकि आत्माके साथ कार्यकारणभावमुद्रास उन शरीरोंका अनादिसे सम्बन्ध होता चला आ रहा है, जैसे कि बीज वृक्ष या अण्डा मुर्गी इनमें अन्योन्याश्रय या अनवस्था दोष नहीं आते हैं। मूलको नष्ट करनेवाली अनवस्था तो दूषण है । किन्तु मूलको पुष्ट करनेवाली या कुलपरम्पराको बढानेवाली अनवस्था भूषण है । अतः युक्तियोंसे यह बात सिद्ध हो जाती है कि शरीरसहित आत्मा ही अन्य शरीरोंको बनाता है । अतः तुम्हारे बुद्धिमान् कर्ताको साधनेवाले अनुमानमें घटदृष्टान्तकी सामर्थ्यसे सशरीरकर्ता ही सिद्ध हो पायगा । अशरीर नहीं और सामान्य बुद्धिमानोंको साध्य कोटिमें धरनेपर नाना बुद्धिमानोंको निमित्तपना सिद्ध हो जानेसे सिद्धसाधन दोष तुम वैशेषिकोंके ऊपर वैसाका वैसा ही अवस्थित बना रहता है। पूर्वमतनुत्वे नरस्य । कोई भी जीव पूर्वशरीरके विना अन्य शरीरोंको नहीं बना सकता है। यदि शरीर बनानेके पूर्वमें आत्माको शरीररहित माना जायगा तब तो मुक्तस्येव न युज्येत भूयोन्यतनुसगतिः। पारतन्त्र्यनिमिचत्वं धर्माधर्मयोर्बुद्धिवत् ॥ २३ ॥ मुक्त आत्माके समान इस संसारीजीवका पुनः बहुतसे अन्य शरीरोंके साथ सम्बन्ध होना नहीं उचित हो सकेगा । अशरीर आत्मा फिर परतंत्र नहीं हो सकता है । यदि वैशेषिक यों कहें कि अशरीर होता हुआ भी आत्मा अपने अदृष्टसंज्ञक धर्माधर्म गुणों करके परतंत्र हो रहा बन्धनबद्ध हो जाता है, इसपर आचार्य कहते हैं कि जैसे आत्माका ज्ञानगुण आत्माको पराधीन नहीं करता है, उसी प्रकार आत्माके तुम्हारे यहां माने गये धर्म, अधर्म, गुण भी आत्माको परतंत्र बनाने के निमित्त नहीं हो सकते हैं । यदि अपने ही अंग, स्वभाव या गुण अपनेको पराधीन करने लगें तो सम्पूर्ण पदार्थ अपने स्वरूपोंका परित्याग कर बैठेंगे । सा यद्यदृष्टसद्धावान्मता तस्य तु सिध्द्यतु । पूर्व कर्मशरीरेण संबंधः परविग्रहात् ॥ २४ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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