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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके न हि धीमद्धेतृत्वमात्रं जगतां पर्यायार्थादेशादभ्युपगच्छतः स्याद्वादिनोऽपसिद्धांतः, सिद्धांतेपि नानापाणिपरिणामाख्यभावकर्मनिमित्तजगद्यवस्थितेः अन्यथा जगतस्तदुपभोग्यत्वविरोधात् । पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे तीनों या संपूर्ण जगत्के सामान्यरूप करके हेतु होरहे नाना बुद्धिमानोंको स्वीकार करते हुये स्याद्वादी पण्डितके यहां कोई अपसिद्धांत दोष नहीं है। अर्थात्बुद्धिमान् जीवोंको जगत्का कारण मान लेनेसे स्याद्वादीका अपने सिद्धांतसे स्खलन नहीं होजाता है । क्योंकि जैनसिद्धांतमें भी अनेक प्राणियोंके परिणामसंज्ञक भावकर्मीको निमित्त पाकर जगत निर्माणकी व्यवस्था की गई है। अन्यथा यानी अनेक प्राणियोंको निमित्त नहीं मानकर यदि जगत्के कारण को दूसरे ढंगका माना जायगा तो जगत्को उन प्राणियोंके उपभोग करने योग्यपनका विरोध होजावेगा। बात यह है कि आत्माके पुद्गलस्वरूप कर्मोको निमित्त पाकर हुये परिणाम भी चेतन आत्मक भावकर्म हैं । क्योंकि क्रोध, गति, वेद, उत्साह आदि भावकर्मोका उपादानकारण आत्मा ही तो है । अतः आत्मा चाहे स्वपुरुषार्थसे अथवा भले ही स्वकीयपरिणाम होरहे भावकर्मोसे कार्योको करे, उन सर्व कार्योका यथायोग्य भोग कर लेता है। "कत्वभोक्तृत्वयोः सामानाधिकरण्यात् "। जो ही कर्ता है वही भोक्ता है । एक स्त्री यदि दश मनुष्योंकी रसोई बनाती है तो भले ही वह दशवें भागका उपभोग करती है। फिर भी गृहस्थसम्बन्धी कर्त्तव्य या प्रेमप्राप्ति, यशः आदिका आनंद पूरा ले लेती है। कुम्हार हजारों घडोंको बनाता है, सूचीकार ( दर्जी ) सैकडों कपडोंको सीवता है । सुनार दूसरों के वीसों भूषणोंको रचता है । ये सब शिल्पकार उनका पारिश्रमिक व्यय यानी मूल्य प्राप्त कर उन कार्योंको भोग लेते हैं। कोई निःस्वार्थ देशसेवक या परोपकारी साधु अथवा औषधदानी वैद्य यदि अनेक कार्योका संपादन कर रहे हैं तो उनको भी निःस्वार्थसेवा, स्वकर्त्तव्यपालन, स्वदेशीय अभिमान, यशःप्राप्ति, पुण्यसंचय, आदि उपभोगोंकी प्राप्ति विना चाहे ही होजाती है। अकामनिर्जरा भी होजाती है । यदि किसीको स्वकृतकार्योंका उपभोग न भी मिल सके तो हमारी यह व्याप्ति नहीं बनी है, जो जिसका कार्य है वह कार्य उसका उपभोग्य अवश्य है । हमने तो अनेक स्थलों पर वैसा देखकर स्वरूपकथन कर दिया है । अव्यभिचारी कार्यकारणभाव नहीं बना दिया है। दो, चार, स्थलपर घटित होजानेसे ही हमारा प्रयोजन सध जाता है । कार्यका अपने कारणों के साथ अन्वयव्यतिरेक है। व्यापक, अशरीर,नित्य, ईश्वरके साथ कार्योका अन्वयव्यतिरेक नहीं है । एतन्मात्र हमें सुझाना है । सशरीरः कुलालादिः कुर्वन् दृष्टो घटादिकं । खयमात्मा पुनर्देहमशरीरोपि विश्रुतः ।। १९ ॥ सदेहेतरसामान्यस्वभावो जगदीश्वरः। करोतीति नु साध्येत यदा दोषस्तदा क सः ॥२०॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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