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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २९ संयमासंयमोऽपीति घातिक्षीणोपशांतता। सिद्धा तद्भवभावानां तथाभावं प्रसाधयेत् ॥ ५ ॥ तिस कारणसे यहां मति, श्रुत, आदिक चारों विज्ञान शुद्धअशुद्ध आत्मका स्वरूप होरहे लिंग माने गये पूर्व आम्नायसे चले आरहे हैं, उन मति आदिकको आवरण करनेवाले मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मोके क्षयोपशमकी सत्ताको साधनेमें वह शुद्धाशुद्धात्मकपना ज्ञापक लिंग है । इसी प्रकार कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान ये तीन कुज्ञानभाव भी शुद्ध अशुद्ध आत्मक हो रहे संते उनके प्रतिपक्षी कमा क्षयोपशमको साधनेमें ज्ञापक हेतु हैं । तथा चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन ये शुद्ध, अशुद्ध, आत्मक तीन दर्शन भी अपने आवरण करनेवाले कर्मोके क्षयोपशमकी सत्ताको साधनेमें ज्ञापक लिंग है। इसी प्रकार वैसी शुद्ध अशुद्ध आत्मक दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, ये पांच लब्धियां भी अपनेमें अंतरायको डालनेवाले पांच अंतरायकर्मोके क्षयोपशमकी विद्यमानताको साधनेमें व्याप्त हेतु हैं। तथा आत्मामें अनुभूत हो रहा तिस प्रकार शुद्ध, अशुद्ध आत्मक वेदक सम्यक्त्व परिणाम तो दर्शनमोहनीयके क्षयोपशम का साधक लिंग है । तथा शुद्ध अशुद्ध आत्मक हो रहा वृत्त यानी क्षायोपशमिक चारित्र भी आत्मामें चारित्रमोहनीयके क्षयोपशमका ज्ञापक लिंग माना गया है । एवं संयमासंयमभाव भी अनुभूत हो रहा संता अपने घातक कर्मोकी क्षीणवृत्ति और उपशान्त वृत्तिको आत्मामें साध देता है । चारित्रमोहनीय कर्मकी पच्चीस प्रकृतिओंमें अनन्तानुबन्धी चौकडी, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्टय, और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, ये बारह प्रकृतियां सर्वघाती हैं। शेष प्रकृतियां देशघाती ह । यद्यपि संज्वलनमें भी कुछ पिण्ड ऐसे हैं, जिनका कि छठवें सातवें गुणस्थानमें उदय नहीं, है । किन्हीं मिथ्यात्वके सहभावियोंका तो पहिलेमें ही उदय है । अचारित्रके सहभावी कतिपयोंक चौथे गुणस्थानतक ही उदय है । इसी प्रकार कुछ प्रत्याख्यानावरण अप्रत्याख्यानावरण प्रकृतिओंका भी चौथे गुणस्थानमें उदय नहीं है । पहिलेमें ही है। फिर भी उन उन गुणोंका सम्पूर्ण रूपसे घात नहीं करनेकी अपेक्षा उनके सिरपर बुराई नहीं लादी गयी है । बुराईको झेलनेवाली वहां दूसरी प्रकृतियां श्वश्रूके समान आपत्तिको ले रही हैं । उपशम श्रेणीमें उपशम चारित्र और क्षपक श्रेणीमें क्षायिक चारित्र है । यहां देशघातीके उदयकी आवश्यकता नहीं है। विवक्षा भी नहीं है । सम्यक्त्व गुणके लिये अनन्तानुबन्धी चतुष्टय, मिथ्यात्व, सम्यामिथ्यात्व ये छह प्रकृतियां सर्वघाती हैं । और सम्यक्त्व प्रकृति देशघाति है, सम्यक्त्व गुण आत्माका अनुजीवी गुण है । और सम्यक्त्व प्रकृति पुद्ग की बनी हुई दर्शनमोहनीयका तीसरा भेद है । जो कि उपशम सम्यक्त्वरूप परिमाणों करके मिथ्यात्व द्रव्यके तीन टुकडे होकर चक्कीमें पिसे हुये कोदोंकी भुसीके समान मन्दतम अनुभागको लिये हुये है। सम्यक्त्व नामक शब्दका एकसा होनेपर भी अर्थ न्यारा न्यारा समझना चाहिये। तथा संयमासंयम
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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