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________________ तत्त्वार्थ लोकवार्त है । हां, कुछ देर तक शनैः शनैः कोदों या भांगको छन्ना में भींचकर धो देनेसे उसकी अधिक उष्णताको उत्पन्न करनेवाली मदजननशक्ति तो नष्ट होजाती है और मध्यम मद (गुलाबी नशा ) को उपजनेवाली मदशक्ति नष्ट नहीं होती है । इसी प्रकार सर्वघाति स्पर्धकशक्तिरूपसे क्षीणस्वरूप और I देशघाति स्पर्द्धकरूपसे अक्षीण आत्मक घातिकर्मोका शुद्धात्मकपना और अशुद्धात्मकपना सिद्ध हो रहा है । अन्यथा यानी घाति कर्मोके क्षीण अक्षीण स्वरूप हुये बिना शुद्ध अशुद्ध आत्मकपनकी सिद्धी नहीं हो सकेगी | भावार्थ- पेट मेंसे कुछ अजीर्ण दोषाके नष्ट हो जानेपर और कुछ दोषोंका कार्य होते रहनेसे आत्मामें स्वस्थता, अस्वस्थात्मक मध्यमकोटिकी प्रसन्नता होती है । उसी प्रकार अन्तरंगज्ञान, चरित्र, लब्धि, आदिकी कुछ शुद्धि और कुछ अशुद्धि अनुभूत होरहीं है । वह ज्ञापकलिंग 1 कर्मोकी क्षयोपशम अवस्थाका अनुमान करा देता है । २८ स्वसंवेदनादेवात्मनः शुद्धाशुद्धात्मतायाः सिद्भिरप्रतिबंधा सती घातिकर्मणां क्षीणोपशांतस्वभावतां साधयति तदभावे तदनुपपत्तेः पयसि पंकस्य क्षीणोपशांततामंतरेण शुद्धाशुद्धात्मतानुपपत्तिवत् । I स्वसम्वेदन प्रत्यक्षसे ही आत्माके शुद्ध, अशुद्ध, आत्मकपने की बाधारहित सिद्धि हो रही सन्ती चार घातिया कर्मोंाँके क्षीण स्वभाव और कुछ अक्षीणस्वभावपनको साध देती है । इसका कोई बाधक प्रमाण नहीं है । क्योंकि इस कुछ अंशोंमें क्षीण और कुछ अंशोंमें उपशान्त होरहे तथा क अंशोंमें उदय प्राप्त होकर अक्षीण स्वभावसहितपनके बिना उस शुद्धाशुद्धात्मकपनेकी उपपत्ति नहीं हो सकती है, जैसे कि जलमें कचिके क्षीण और उपशान्त तथा कुछ घुलेपन अवस्थाके बिना शुद्धअशुद्ध आत्मकपन अर्थात्-बहुभाग स्वच्छता और अतीव मन्द गंदलेपनकी सिद्धि नहीं हो पाती है । औषध या शरीरप्रकृतिद्वारा चिकित्सा होनेपर यदि रोगका सौमा भाग अवशिष्ट रह जाय अथवा धोवते धोते वस्त्र अत्यल्प मल या रंग शेष रहजाय इत्यादि अवस्थाओं में भी प्रतिपक्षी पुद्गलोंका क्षयोपशम होना उदाहरण बनाया जासकता है । ततो मत्यादिविज्ञान चतुष्टयमिह स्मृतं । शुद्धाशुद्धात्मकं लिंगं तदावरणकर्मणाम् ॥ २ ॥ क्षयोपशमसद्भावे मत्यज्ञानादि च त्रयं । दर्शन त्रितयं चापि निजावरणकर्मणा ॥ ३ ॥ लब्धयः पंच तादृश्यः स्वांतरायस्य कर्मणः । सम्यक्त्वं दृष्टिमोहस्य वृत्तं वृत्तमुहस्तथा ॥ ४ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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