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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः विचार करनेवाले लब्धि या उपयोग रूप मानस मतिज्ञानस्वरूपभाव ही तो संज्ञीपन है । " णोइन्दिय आवरणंखओवसमं तज्जवोहणं सण्णा, सा जस्स सो दु सण्णी इदरो सेसिंदि अवबोहो” तथा जात्यन्तर सर्वघाती सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदय होनेपर हुआ सम्यग्मिध्यात्वभाव तो सम्यक्त्व परिणाममें गर्भित हो जाता है । देखिये लताभाग पूरा और दारुभागका अनन्तवां भाग इतना तो देशघाती प्रकृतिका द्रव्य कहा जाता है । शेष दारुके अनन्त बहुभाग और अस्थिभाग, शैलभाग, ये सर्वघाती स्पर्द्धक हैं । किंतु दारुभागके बचे हुये बहुभागके अनन्तवें भाग प्रमाण न्यारी जातिवाले मिश्र प्रकृतिके सर्वघाती स्पर्द्धक हैं । अतः देशघाती सम्यक्त्व प्रकृतिके अति निकटवर्ती होनेसे तज्जन्य सम्यग्मिथ्यात्व भावका सम्यक्त्व भावमें अन्तर्भाव करलेना समुचित है । गोम्मटसार कर्मकाण्डमें लिखा है । "देसोत्ति हवे सम्मं तत्तो दारू अणंतिमे मिस्स, सेसा अणन्तभागा अद्विसिलाफड्ढया मिच्छे " इसी प्रकार अंतरायके क्षयोपशमको निमित्त पाकर आत्माके पुरुषार्थ द्वारा वीर्यभाव उपजता है। और मन वचन कायके अवलम्बसे आत्माका सकम्प होना भी एक पुरुषार्थ है। वीर्य और योग आत्माकी दोनों शक्तियां हैं । इतना अघश्य है कि सिद्ध अवस्थामें क्षायोपशमिक वीर्यका नाश होता हुआ भी क्षायिक वीर्य बना रहता है, किन्तु सकम्पपना रूप योग चौदहवें गुणस्थान और सिद्ध अवस्थामें सर्वथा नहीं है । योगस्वरूपभाव क्षायिक नहीं हो सकता है । किसी अंशमें “ पुग्गलविवाइदेहोदयेण मणवयण कायजुत्तस्स, जीवस्स जाउ सत्ती कम्मागम कारणं जोगो" इस गाथाके अनुसार भावयोगको भले ही औदयिक कह दिया जाय । किन्तु मोक्ष अवस्थामें कोई सा भी योग नहीं रहता है । अतः उक्त अठारह भेदोंसे कथंचित् भिन्न हो गये भी संज्ञित्व, सम्यग्मिध्यात्व, योग, इन तीन भावोंका यथाक्रमसे ज्ञान, सम्यक्त्व, और लब्धियोंमें अन्तर्भाव कर लेना चाहिये, संक्षेपसे सूत्र रचना करनेवाले उमास्वामी महाराजको इतने थोडे थोडे अन्तरसे न्यारे न्यारे भावोंकी गणना करना अभीष्ट नहीं है । कुतः पुनः क्षयोपशमः कर्मणां सिद्ध इत्याह । कोई शिष्य पूंछता है कि महाराज फिर यह बताओ कि कर्मोका क्षयोपशम होना भला किस प्रमाणसे सिद्ध हो चुका है ? जिससे कि क्षयोपशमको धारनेवाला भाव अठारह प्रकारका निर्णीत किया जाय, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य स्पष्ट उत्तर कहते हैं। क्षीणाक्षीणात्मनां घातिकर्मणामवसीयते । शुद्धाशुद्धात्मतासिद्धिरन्यथानुपपत्तितः ॥१॥ जैसे कि विशेष ढंगसे जलद्वारा प्रक्षालन करते हुये कोदों या भांगपत्तीकी मदशक्ति क्षीण और अक्षीण हो जाती है, अधिक धो देनेसे तो मदशक्ति सर्वथा नष्ट हो जाती है, या बहुभाग क्षीण हो जाती है, तथा अत्यल्प धो देनेसे मदशक्ति नष्ट नहीं होती है, अथवा लवमात्र ही नष्ट होती
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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