SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक जाते हैं । इसी प्रकार सबसे छोटी कर्मोकी फलदानशक्तिके अविभागप्रतिच्छेद भी अनन्त हैं । यद्यपि उतनी संख्या कभी कम नहीं होती है । फिर भी ऊपरकी श्रेणियोंमें शक्तिके अंशोंकी वृद्धि इतनी थोडी है कि उसको एक मान लेनेपर सबसे कम अनुभागशक्तिको धारनेवाले कर्मोंमें रसशक्तिके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तानन्त ही गिने जा सकते हैं । सबसे न्यून जघन्य गुणोंको धारनेवाले प्रदेशको पकडलो, उसके अनुभाग अंशोंको बुद्धि के द्वारा छेद करते करते उतने बार टुकडे कर डालो, जिससे कि पुनः छोटा विभाग न हो सके । वे अविभाग प्रतिच्छेद जीवराशिसे अनन्तगुणी संख्यामें बैठेंगे। उतनी उतनी संख्याको धारनेवाले प्रदेशोंकी एकराशि कर ली जाय, इन सब परमाणुओंके समुदायको वर्गणा कहते हैं । इसके आगे अविभाग प्रतिच्छेदोंको बढाते हुये राशिको बनाकर उत्तरोत्तर वर्गणायें बना लेनी चाहिये । इस प्रकार क्रमवृद्धि और क्रम हानिसे युक्त हो रही वर्गणापंक्तियोंका समुदाय स्पर्धक कहा जाता है । समगुणवाले परमाणुओंके समुदायको वर्गणा कहते हैं । और वर्गणाओं के समुदायको स्पर्धक कहते हैं । एक जीवके एक समयमें अनन्तस्पर्धकोंका उदय हो जाता है। पिंडकी अपेक्षा उसे एक स्पर्वक भी कह सकते हैं । अर्थात्-अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदोंको धारनेवाले परमाणु वर्ग कहे जाते हैं। अनन्तवर्गोकी एक वर्गणा होती है। अनन्तवर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है। और अनन्तस्पर्धक एक समयमें उदय आते हैं । किये हुये भोजनका भी प्रतिक्षण उदराग्निके द्वारा एक मोटा स्कन्ध उदयमें आता रहता है । अष्टमी या चौदसको उपवास करना केवल मुखद्वारसे कवलाहारका त्याग करना मात्र है । अन्तरंगकी उदराग्निक लिये तो भोज्य, पान, की सतत आवश्यकता है। कर्म और नोकर्मोका सर्वदा एक समयप्रबद्ध बन्धको प्राप्त होता रहता है। और एक निषेक उदयमें प्राप्त होता रहता है । पुद्गलके कार्योंकी अनेक प्रकार जातियां हैं । मति ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम या उदय अथवा क्षय होता है । सदवस्थारूप उपशम होते हुये भी इनका औपशमिक भाव नहीं बन सकता है । क्योंकि बारहमें गुणस्थानतक ज्ञानावरणकी देशघातिओंका उदय सर्वदा विद्यमान है। जैसे कि नाकतक ढूंसकर जीम लेनेपर भी पान, सुपारी, पाचनचूर्ण, श्वासोछ्वास लेनेके लिये रिक्तता [ गुंजाइश ] बनी रहती है । अतः ज्ञानावरणके उदय, क्षयोपशम और क्षय ये तीन भाव हैं। हां, मोहनीयके उपशमको मिलाकर चारों भाव हो सकते हैं । शक्ति विशेषोंको धार रहे कर्मस्कन्धोंके स्पर्द्धक आत्मामें अनेक जातिवाले हैं। ऐसे पौद्गलिक पिण्डोंको यहां प्रकरणमें स्पर्द्धक माना गया है। संज्ञित्वसम्यग्मिथ्यात्वयोगानां ज्ञानसम्यक्त्वलब्धिष्वंतर्भावान पृथगुपादानं । मनको धारनेवाले संज्ञीजीवोंके पाया जानेवाला संज्ञित्वभाव और तीसरे गुणस्थानमें पाया जानेवाला सम्यमिथ्यात्वभाव तथा कायवाङ्मनःकर्मरूप योग इन तीन भावोंका तो ज्ञान, सम्यक्त्व और लब्धियोंमें अंतर्भाव हो जानेसे श्री उमास्वामी महाराजने सूत्रमें कण्ठोक्त पृथक् ग्रहण नहीं किया है अर्थात्-नाइन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमसे हुये संज्ञीपनका मतिज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy