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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ३९५ है । उस तिर्यग्योनिमें उत्पन्न हुये जीव तिर्यग्योनिज हैं । तिर्थों के स्थूलरूपस एक स्पर्शन इन्द्रियवाले और दो इन्द्रिय तीन इन्द्रियें या चार इन्द्रियां, यों विकल होरही इन्द्रियों को धारने वाले तथा पांचों इन्द्रियोंको धारनेवाले यों तीन प्रकार हैं । इस सूत्रमें तिर्यचोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिको कह दिया गया है। पर, अपर, स्थितियोंके कह देनेसे विना कहे ही सामर्थ्य द्वारा लब्ध होगई मध्यमा स्थितिकी प्रतिपत्तिको आगम अनुसार कर लेना चाहिये । जैसे कि कई प्रकारके तिर्यचोंकी जघन्य या उत्कृष्टस्थितियोंको सर्वज्ञोक्त आम्नाय द्वारा निणीत कर लिया जाता है । अर्थात्-मृदु पृथ्वीकायिक जीवोंकी उत्कृष्टस्थिति बारह हजार वर्ष है । पर्वत, रत्न, कंकण, आदि कठिन पृथ्वीकायिक जीवोंकी परा स्थिति बाईस हजार वर्षकी है। जलकायिक जीवोंकी सात हजार, तेजस्कायिक जीवोंकी तीन दिन, वायुकायिक जीवोंकी तीन हजार वर्ष, और वनस्पतिकायिक जीवोंकी दस हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति है । शंख, सीप, आदि द्वीन्द्रियोंकी बारह वर्ष, त्रीन्द्रियोंकी उनंचास दिन, मक्खी बर्र आदि चतुरिन्द्रिय जीवोंकी छह मास उत्कृष्ट स्थिति है। पंचोंन्द्रय तिर्थचोंमें जलचर मत्स्य, मकर, आदि जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति कोटिपूर्व वर्ष है । सर्पट चलनेवाले गोह, नौला, विषखपरा, आदिक जीव नौ पूर्वाङ्गतक जीवित रह सकते हैं। सोकी उत्कृष्ट आयु बियालीस हजार वर्ष है । पक्षियोंको उत्कृष्ट आयु बहत्तर हजार वर्ष है । भोगभूमियोंमें पाये जा रहे पक्षियोंमें यह आयु सम्भवती है । चार पांववाले पशुओंकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्यकी है । सम्पूर्ण तिर्यंचोंकी जघन्य आयु श्वासके अठारहवें भागप्रमाण अन्तर्मुहूर्त है, जो कि कर्मभूमियों के तिर्यचोंमें ही पायी जाती है । यहां विशेष इतना ही कहना है कि पत्थरका कोयला, मिट्टी, कंकड, रत्न, आदि सचित्त पृथ्वीकी सरसों प्रमाण डेलीमें असंख्याते पृथिवीकायिक जीव हैं । यही दशा जलकी बूंद या अग्निका टुकडा अथवा वायुके स्वल्प भागमें भी लगा लेना । यदि कितने ही दिनोंतक अग्नि जलती रहे तो भी उसका जीव तीन दिनसे ज्यादा ठहर नहीं सकता है। असंख्य जीव वहां क्रमसे जन्म लेते और मरते रहते हैं । तेल, लकडी, विद्युत्प्रवाह, आदिसे जो चमकती हुई अग्नि ज्वालायें उपजती हैं, उन अग्निकायके जीवों की स्वल्पकाल स्थिति प्रसिद्ध ही है। क्योंकि अग्निज्वालास्वरूप अनेक शरीरोंका अग्निकायिक जावों की मृत्युके पश्चात्का जल आदि पर्यायोंमें परिवर्तन हो जाता है । मधु मक्खियों या बरों के छत्ता कई वर्षांतर बने रहते हैं। उनमें मक्खियां भी पायी जाती हैं । ये उन मक्खियोंकी धारावादिकसंतान हैं । एक मक्खी या बरं छह महीनेसे अधिक जीवित नहीं रह सकती है । समुदित मक्खियोंकी संतान, प्रतिसंतानों, करके हुये मतिज्ञानों करके ये कार्य भी हो जाते हैं कि मक्खियां कुछ दिनके लिये पहाडोंपर या अन्य उचित स्थानोंपर चली जाती हैं । महीनों बाद उस स्थानपर लौट आती हैं । यद्यपि ची इन्द्रिय जीवोंके मनसे होनेवाला विचार आत्मक श्रुतज्ञान नहीं है । फिर भी जितना कुछ मतिज्ञान है, उसके द्वारा घूम फिर कर अपने स्थानपर लौट आना या अपने बच्चोंके शरीर उपयोगी सन्मूर्छन पदार्थोको ढूंढ कर ले आना,
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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