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________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके जिनदृष्ट संख्यात-आवलीप्रमाण जघन्य स्थिति समझनी चाहिये । कोटिपूर्व वर्षकी स्थिति भी संख्यात आवलियां हैं । प्रतरावलिका असंख्यातवां भाग वह मध्यमस्थिति है। तिरश्चां के परावर स्थिती स्यातामित्याह । पुनः जिज्ञासुका प्रश्न है कि मनुष्योंकी स्थिति समझ ली, तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति क्या होगी ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अगले सूत्रको कहते हैं । तिर्यग्योनिजानां च ॥४०॥ तिर्यग्गति नामकर्म के अनुसार तिर्यंच योनियोंमें जन्म लेनेवाले जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम और जघन्य भवस्थिति नाडीगतिके अठारहवें भागप्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । त्रिपल्योपमांतर्मुहूर्ते इति वर्तते, पृथग्योगकरणं यथासंख्यनिवृत्यर्थ । एकयोगकरणे हि नृतिर्यस्थिती इति निर्देशे नृस्थितिः परा त्रिपल्योपमा, तिर्यस्थितिरवरान्तर्मुहूर्तेति यथासंख्यमभिसंबंधः प्रसज्यते । ततस्तनिवृत्तिः पृथग्योगकरणात् । " नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते " इस सूत्रसे " त्रिपल्योपमा ” और “ अन्तर्मुहूर्त" शब्दकी अनुवृत्ति कर ली जाती है स्थिति और परा, अपराका प्रकरण चल ही रहा है । अतः तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य है । जो कि उत्तम भोगभूमियोंके तिर्यचोंके पायी जाती है। तिर्यचोंकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्तकी लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचोंके सम्भव रही है । पूर्वसूत्रके साथ इस सूत्रका एक योग नहीं कर पृथक् पृथक् योगविभाग करते हुये श्री उमास्वामी महाराज करके दो सूत्रोंका कथन करना तो संख्या अनुसार यथाक्रमसे होजानेवाले अनिष्टप्रसंगकी निवृत्ति के लिये है। कारण कि यदि दोनों सूत्रोंको मिलाकर " नृतिर्यस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते” यो जोडकर दिया जायगा तो मनुष्य और तिर्यचोंकी स्थिति वो लघुतापूर्वक कथन करने पर इस प्रकार यथा . संख्यसे दोनों ओर पर और अवरके सम्बन्ध होजानेका प्रसंग होजावेगा कि मनुष्योंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम है और तिर्यचोंकी जघन्यस्थिति अंतर्मुहूर्त है । किन्तु केवल इतना ही अर्थ तो सूत्रकारको अभीष्ट नहीं था । अतः न्यारे दो सूत्र बनाकर तिस योगका पृथक्भाग कर देनेसे उस अनिष्टप्रसंगकी निवृत्ति होजाती है। तिर्यङ्नामकर्मोदयापादितजन्म तिर्यग्योनिस्तत्र जातास्तिर्यग्योनिजाः एकेंद्रियविकलेंद्रियपंचेंद्रियविकल्पास्त्रिविधाः तेषां च यथागमं मध्यमा स्थितिः सामर्थ्यलभ्या प्रतिपत्तव्या परावरास्थितिवत् । - जिन संसारी जीवोंका जन्म लेना नामकर्मके भेद होरहे गतिनाम कर्मकी उत्तरप्रकृति मानी गयो तिर्यग्गति संज्ञक नामकर्मके उदय होने पर सम्पादित होरहा है, वह जन्म तिर्यग्योनि कहा जाता
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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