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________________ ३९२ तत्त्वार्यश्लोकवातिक रहित हो रहे और गुहा या वृक्षमें निवास करते सन्ते एक टांगवाले, सींगवाले, पूंछवाले आदि या अश्वमुख, सिंहनुख, महिषमुख, आदि अवस्थावाले शरीरोंको धार रहे, सदा भोगोंको भोगते रहते हैं । एक पच्य अपनी आयुःप्रमाण पर्यन्त अपने समान पत्नीके साथ निराबाध भोगोंको भोग कर अन्तमें मरकर स्वर्गमें वाहनजातिके देव हो जाते हैं । अथवा ज्योतिषी, व्यंतर अथवा भवनवासी होकर पुनः दुर्गतिके दुःखोंको भोगते हुये संतारमें भ्रमण करते हैं। यों भोगभूमियोंके लक्षणकी घटना हो जानेसे अन्तीपवासी म्लेच्छोंको कुभागभूमियां कह देना जच जाता है । मानुषोत्तरपर्वतसे परली ओर आधे अन्तिम द्वीपतक एकेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय तिथंच ही हैं। ये स्थान भी कुत्सित भोगभूमियां कहे जाते हैं । जघन्य भोगभूमिवत भी माने जा सकते हैं । इन तिर्यंचोंकी भी असंख्यात वर्षकी आयु है। एक कोश ऊंचा शरीर है । इनको आदिके चार गुणस्थानतक हो सकते हैं। सभी भोगभूमियां मरकर कषायोंका आवेग कुछ न्यून होनेसे देवगतिको प्राप्त करते हैं। हां, स्वयंभ पर्वतसे परली ओर आधे स्वयम्भूरमण द्वीप और पूरे स्वयंभूरमण समुद्र तथा चारों कोने कर्मभूमियां हैं । इनमें स्थलनिवासी तिर्यंच पांचवें गुणस्थानवर्ती भी असंख्याते पाये जाते हैं। यहां प्रकरणमें ढाई द्वीपसम्बन्धी कर्मभूमियोंका सूत्रद्वारा और ढाई द्वीपसम्बन्धी भोगभूमियोंका अर्थापत्ति प्रमाण द्वारा परिज्ञान करा दिया गया है । अथ तन्निवासिनां नृणां के परावरे स्थिती भवत इत्याह ।। भली भांति तृप्त हो चुके शिष्यका दूसरे प्रकारका प्रश्न है कि गुरु महाराज, यह बताओ कि उन ढाई द्वीपोंमें निवास करनेवाले मनुष्योंकी उत्कृष्टस्थिति और जघन्यस्थिति क्या होती है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रको कहते हैं । नृस्थितीपरावरे त्रिपल्योपमांतर्मुहूर्ते ॥ ३९ ॥ मनुष्योंकी उत्कृष्टस्थिति तीन अद्धामल्योपम है, जो कि उत्तम भोगभूमियां मनुष्यों के संभव रही है और जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, जो कि श्वासके अठारहवें भाग काल की लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें पायी जाती है। अडतालीस मिनट के मुहूर्तमें तीन हजार सातसौ तिहत्तर ३७७३ श्वास माने गये हैं । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य स्वासके अठारह भागतक जीवित रहता है ॥श्वासका अर्थ मनुष्यों के पोंमें वात, पित्त, कफकी, चल रही नाडीकी एक बार गतिका कालपरिमाण है । मुख या नाकसे निकल रही प्राणवायुको श्वास माननेपर जन्म, मरणका गणित ठीक नहीं बैठता है । श्वास गतिसे नाडीकी गतिका काल कुछ न्यून, अधिक दुगुना बैठ जाता है । उत्कृष्ट स्थिति भोगभूमिके मनुष्य की है और जघन्यस्थिति सन्मूर्छन जन्मवाले लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यकी है। यथासंख्यमभिसंबधनिपल्योपमा परा नृस्थितिरंतर्मुहूर्तावरा इति १ मध्यमा वृस्थितिः केत्याह ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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