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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ३९१ 1 भूमि भोग भूमियां हैं । ये भोगभूमियां श्री उमास्वामी महाराजने पूर्वसूत्रोंमें या इस सूत्र में यद्यपि कंठोक्त नहीं कहीं हैं, तो भी सामर्थ्य से अर्थापत्तिप्रमाण करके निर्णीत कर ली जाती हैं, जिस प्रकार कि पूर्वसूत्रमें कहे जाचुके प्रमेय की सामर्थ्यसे दोनों लवणसमुद्र और कालोदधि समुद्रका निर्णय कर लिया जाता है । सार्धद्वीपद्वयप्रतिपादनसूत्रे वचनसामर्थ्यादश्रूयमाणस्यापि समुद्रद्वितयस्य यथावसायो जंबूद्वीपलवणोदादिद्वीप समुद्राणां पूर्वपूर्वपरिक्षेपित्ववचनात् तथास्मिन् सूत्रेमुक्तानामपि भोगभूमीनाम् निश्चयः स्यात् । भरतैरावतविदेहा देवकुरूत्तरकुरुभिर्वर्जिताः कर्मभूमय इति वचनसामर्थ्यात् देवकुरूत्तरकुरवः शेषाश्च हैमवतहरिर म्यकहैरण्यवताख्या भूमयः कर्मभूमिविलक्षणत्वाद्भोगभूमय इत्यवसीयंते । 1 प्रतिपादन 'नेवाले उक्त सूत्रोंमें लवण समुद्र और कालोदधि समुद्रों का वर्णन सूत्रों द्वारा नहीं सुना गया है। फिर भी सूत्रकारके गम्भीर वचनों की सामर्थ्य से जिस प्रकार अश्रूयमाण दोनों समुद्रों का निर्णय कर लिया जाता है, क्योंकि पहिले जम्बूद्वीप, लवणोद आदि असंख्यात द्वीप समुद्रों का वर्णन किया गया है । पश्चात् सूत्र द्वारा पूर्व पूर्व के द्वीप, समुद्रों का पिछले पिछले द्वीप समुद्रों करके घेरा डाले रहना कहा गया है, अतः बिना कहे ही जम्बूपिके परिक्षेपी लवण समुद्र और anantaण्ड परिक्षेपी कालोदधि समुद्रका निश्चय कर लिया है, उसी प्रकार इस सूत्र में कण्ठो नहीं भी कहीं गयीं भोगभूमियों का निश्चय कर लिया जाता है । भरत, ऐरावत, विदेह, ये देवकुरुओं और उत्तरकुरु भागोंसे वर्जित हो रहे कर्मभूमि स्थान हैं । इस प्रकार इस सूत्र के कथन की सामर्थ्य से पांच मेरुसम्बन्धी पांच देवकुरुयें, पांच उत्तर कुरुयें और पांच मेरूसम्बन्धी उक्त तीन क्षेत्रोंसे शेष रहीं पांच हैमवत, पांच हरि, पांच रम्यक, पांच हैरण्यवत, संज्ञावाली भूमियां भोग भूमिय यो निर्णीत कर ली जाती हैं। क्योंकि ये कर्मभूमियोंसे विलक्षण हैं । यद्यपि कर्मभूमिसे विलक्षणपना स्वर्ग, नरक, स्थावरलोक, सिद्धालय, आदिमें भी विद्यमान हैं । फिर भी पर्युदास पक्ष अनुसार भूमिपना, मनुष्यक्षेत्रत्त्र आदि विशेषणों का अन्तगर्भ होनेसे उक्त हेतु व्यभिचारदोषकरके प्रसित नहीं है। यों पांच मेरुसम्बन्धी पन्द्रह कर्मभूमियां और पांच पांच देवकुरु, उत्तरकुरू, हैमवत, हरि, रम्यक, हैरण्यवत, इन नामोंसे तीस भोग भूमियां विन्यस्त हैं । छियानवें अन्तर्द्वीपों को कुभोग भूमियों में गिनाया जा चुका है । किन्हीं जैन विद्वानोंका मन्तव्य है कि दिशाओं में वर्तनेवाले समुद्रद्वयस्थ अन्तरद्वीप या कर्मभूमियोंके निकटवर्ती अन्तरद्वीप कर्मभूमि सदृश हैं । किन्तु इस मतमें अपना विशेष आदर नहीं है। कारण कि प्रकृष्ट पुण्य, पापों, अनुष्ठान, मोक्षमार्ग, देशत्रत, महाव्रत, आदिका परिपालन नहीं होनेसे कतिपय अन्तद्वीपों को कर्मभूमि कहनेमें जी हिचकिचाता है। अधिक से अधिक इनके चौथा गुणस्थान हो सकता है । छियानवे अन्तरद्वीपोंमें उपजे श्रेष्ठमनुष्य विचारे भूषण, वख, 1
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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