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तत्वार्थ लोकवार्तिक
नारकियोंकी भी यही दशा है, स्थावर लोक में कर्मफलचेतनाका व्यापार चमक रहा है, तो फिर इन पंद्रह स्थलोको ही कर्मभूमियां कहना यह विशेषण तो युक्तिसिद्ध नहीं बन पाता है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि परिहारविशुद्धि, उत्कृष्ट देशावधि, परमावाधि, सर्वावधि, मनः पर्ययज्ञान, केवलज्ञान या उत्कृष्ट ऋद्धियां, उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन, चारित्र आदि प्रकृष्ट गुणों का अनुभव या उपार्जित कर्मोंकी निर्जरा के अधिष्ठान ये पंद्रह क्षेत्र ही बन रहे हैं । अथवा " न वा प्रकृष्टशुभाशुभकर्मोपार्जननिर्जराधिष्ठानोपपत्तेः " यों पाठ मानने पर यह अर्थ हुआ कि उक्त शंका उठाना उचित नहीं है । क्योंकि जो सर्वार्थसिद्धि विमानके प्रापक या तीर्थकरत्व अथवा महती ऋद्धियों के संपादक असाधारण प्रकृष्ट शुभकर्म हैं, उनका उपार्जन इन कर्मभूमियोंमें ही किया जाता है और सातमें नरकको प्राप्त करा देनेवाले जो तीव्र पापकर्म हैं, उन कर्मोका संचय भी इन ही कर्मभूमियों में हो सकता
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। तथा प्रत्येक कार्यमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भात्रोंकी अपेक्षा है । अतः ये कर्मभूमियां रूप पंद्रह क्षेत्र ही सर्वोत्कृष्ट पुण्यकर्म और सबसे बड़े पापकर्मके उपार्जन स्थल हैं । संसारभ्रमणको न्यून करने - बाली निर्जरा या मोक्षतस्त्रकी प्राप्ति भी इन ही स्थलोंसे होती है। दूसरी एक बात यह भी है कि क्षत्रिय उपयोगी असिकर्म और वैश्यवर्णके उपयोगी मषिकर्म, वणिक्कर्म, कृषिकर्म, तथा शूद्र उपयोगी विद्याकर्म, शिल्पकर्म इनका इन कर्मभूमियोंमें ही अनुष्ठान करना देखा जाता है । ब्राह्मण वर्णके उपयोगी यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और ग्रहण ये छह कर्म इन कर्मभूमियोंमें प्रवर्त
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हैं । मुनिजन अपने छह सामायिक आदि आवश्यक कमको, श्रावकजन देवपूजा आदि षट् आवश्यकोंको पंद्रह कर्मभूमियोंमें पालते हैं । इस सूत्र अन्यत्र शद्वका अर्थ परित्याग करना है । अतः परिशेष न्याय से भरत, ऐरावत, और देवकुरु, उत्तरकुरुवर्जित विदेहसे अतिरिक्त ढाई द्वीपमें शेष रहीं भूमि भोगभूमियें हैं, यह बात कहे विना ही सामर्थ्य से जान ली जाती है। इस बातका निवेदन ग्रंथकार अग्रिम वार्तिकों द्वारा करे देते हैं ।
भरताद्या विदेहांताः प्रख्याताः कर्मभूमयः ।
देवोत्तरकुरूंस्त्यक्त्वा ताः शेषा भोग भूमयः ॥ १ ॥ सामर्थ्यादवसीयते सूत्रेस्मिन्नागता ( न श्रुता) अपि । समुद्रद्वितयं यद्वत्पूर्वसूत्रोक्तशक्तितः ॥ २ ॥
भरतको आद्य स्थानमें घर कर विदेह क्षेत्रपर्यंत कर्मभूमियें बढिया ढंगसे वखानी गयीं है । विदेहक्षेत्र मध्यभाग वर्त रहे देवकुरु, उत्तरकुरू, स्थानों को छोडकर के विदेहक्षेत्रका ग्रहण करना चाहिये । भरताद्या में आदि शद्वको व्यवस्थात्राची मानकर आद्य शद्वसे ऐरावतका ही ग्रहण करना चाहिये | पांच मेरूसम्बन्धी पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच विदेहोंको छोड़कर शेष ढाई द्वीपकी