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तत्वार्थचिन्तामणिः
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सान सिद्धा प्रमाणेन बाध्यमाना कदाचन।
बात यह है कि क्षेत्र आर्य या कर्म आर्य अथवा चारित्र आर्य मनुष्योंकी सिद्धि करना सरल है। हां, जात्यार्योकी इस युक्तिप्रधान जगत्में सिद्धि करा देना श्रमसाध्य है । कारण कि प्रायः संपूर्ण मनुष्य जन्मपरम्पराको तो स्वीकार कर लेते हैं । विष्णु या ब्रह्माके द्वारा हुई आदि सृष्टिको माननेवाले अथवा चाहे जितनी आत्माओंकी सृष्टि या प्रलयको कर देने वाले अल्लाहके अनुयायी मोहमदियोंकी संपूर्ण युक्तियां निर्बल (पोच ) पड गयी हैं। परिशेषमें चार्वाक, साइन्सवेत्ता, यवन, पौराणिक बौद्ध इन सबको गर्भज मनुष्य, पशु, पक्षियोंकी सृष्टि संतानरूपसे अनादिकालीन माननी पडेगी । हां, कतिपय आधुनिक पंडित संतानक्रमसे चले आरहे जीवाचरणका आत्माओंमें संस्कार पड जाना नहीं स्वीकार करते हैं । कोई कोई तो तत्कालीन सदाचार, असदाचारसे झटिति आर्यसे म्लेच्छ और म्लेच्छसे आर्य होजाना अंगीकृत कर लेते हैं। कोई तो जाति, कुल, व्यवस्थाको स्वीकार ही नहीं करते हैं। किन्तु यह बात जगत् प्रसिद्ध है कि विशेष जातिके आमसे भिन्न प्रकारका आम्रफल उपजता है। सांकर्य ( कलम लगा देनेसे ) हो जानेसे अन्तर पड जाता है। बढिया घोडेमें भी पितृवंश, मातृवंशका लक्ष्य रखा जाता है। कषायों या क्षमाकी वासनायें बहुत दिनोंतक बस जाती हैं । इसी प्रकार इक्ष्वाकु वंश, पद्मावतीपुरवाल, अग्रवाल, खण्डेलवाल आदि जातियों की अपेक्षा संतानतक्रमते चले आ रहे आर्य पनका नियामक हेतु जन्मक्रम और कर्मक्रम दोनों ही मानने चाहिये । श्री विद्यानन्द आचार्य वैशेषिकोंकी मानी हुई जातिका प्रयाख्यान करते हैं कि किन्हीं वैशेषिक या नैयायिकोंकरके सर्वथा नित्य, सर्वव्यापक, अमूर्तस्वभाववाली जो ब्राह्मणत्व, चाण्डालत्व, वैश्यत्व आदि जातियां कही जा रही हैं, वे तो कदाचित् भी सिद्ध नहीं हो सकती हैं ? क्योंकि प्रमाणोंसे वे बाधाको प्राप्त हो रही हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, कोई भी प्रमाण उन जातियोंको विषय नहीं करता है, जिनका कि स्वरूप वैशेषिकोंने नित्यपन, व्यापकत्व, और अमूर्तत्व मान रक्खा है।
ब्राह्मणत्वादिजातिः सर्वगता सर्वत्र स्वप्रत्ययहेतुत्वादाकाशवत् सत्तावद्वा, तथा नित्या सर्वदोत्पादकविनाशककारणरहितत्वात् तद्वदेव इत्येके । तेत्र प्रष्टव्याः,सा सर्वगता सती व्यक्त्यंतराले कस्मात्स्वप्रत्ययं नोत्पादयतीति ? स्वव्यंजकविशेषाभावादनभिव्यक्तत्वादिति चेन्न, तदभिव्यक्तेः साकल्येन करणे कचिदुपलंभे सर्वत्रोपलंभप्रसंगात्, देशतः करणे सावयवत्वप्रसक्तेः।
वैशेषिकका मन्तव्य है कि ब्राह्मणत्व, वैश्यत्व, चाण्डालत्व, आदिक जातियां (पक्ष) सर्वत्र व्यापक हैं ( साध्य ), क्योंकि सभी व्यक्तिस्थलोंपर अपने अपने ज्ञानके उत्पादका हेतुपना उन जातियोंमें वर्त रहा है ( हेतु ) आकाशके समान, अथवा सत्ताजातिके समान ( अन्वयदृष्टांत )। तथा ब्राह्मणत्य आदि जातियां ( पक्ष ) नित्य हैं (साध्य ) उत्पत्ति करनेवाले और जातियोंका विनाश