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________________ तत्वार्यश्लोकवार्तिक पनेकी व्यवस्था तो सम्यग्दर्शन, क्षमा, ब्रह्मचर्य, आदि गुणोंको कारण मानकर हुई स्वकीय सम्वेदनसे प्रतीत हो रही है और म्लेच्छमनुष्योंके अपनी अपनी संतानमें वर्त रही म्लेच्छपनकी व्यवस्थिति इन मिथ्यात्व, हिंसा, निर्लज्जता, आदि दोषोंके निमित्तसे हो रही अपने स्त्रसम्वेदन प्रत्यक्षों द्वारा प्रसिद्ध हो रही है, जैसे कि अपने अपने आत्मसद्भावका सम्पूर्ण मनुष्योंको स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष हो रहा है । हां, स्वकीय आत्मासे न्यारे अन्य आत्मा रूप संतानोंमें वर्त रही वह आर्यपन या म्लेच्छपनको व्यवस्था तो आर्यपन, म्लेच्छपनके कार्य हो रहे विशेष व्यापार, विशेषवचन प्रवृत्तियां, या विशेषआकारोंका विशेषतया निश्चय हो जानेसे अनुमान करने योग्य है । इस कारण वह आर्य, म्लेच्छपनकी व्यवस्था अन्य प्रमाणोंका अविषय नहीं है, जैसा कि तुमने पहिले आक्षेप किया था। किन्तु अपनी अपनी आत्मायें स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा और परकीय आत्माओंमें अनुमान द्वारा आर्य, म्लेच्छ, व्यवस्थाको हमने साध दिया है । जब कि किन्हीं किन्हीं सज्जन सदाचारी व्रती मनुष्य व्यक्तियोंमें गुणोंको कारण मानकर आर्यपन व्यवस्थाकी प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों करके प्रसिद्धि हो चुकी है, ऐसा हो जानेपर कर्मभूमिकी आदिमें नहीं टूटी हुयी संतानवाले मनुष्य तिस प्रकारके वस्तुभूत गुणों करके सेवित किये जा रहे जात्यार्य प्रसिद्ध हो जाते हैं, जैसे कि क्षेत्र या कर्म आदिकी अपेक्षा आर्य मनुष्य प्रसिद्ध हो रहे हैं । अर्थात्-भोगभूमियों के मनुष्य आर्य हैं, उन्हींकी संतान, प्रतिसंतान नहीं टूटती हुई कर्मभूमि कालमें भी चली आ रही है। जाति या कुलों के नाम भले ही परिवर्तित हो जाय, इक्ष्वाकुवंश, सोमवंश, नाथवंश ये संज्ञायें इस युगकी अपेक्षासे हैं, तो भी इनकी संतानधारा अटूट है । अतः तिस प्रकार सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकरके जुष्ट हो रहे मनुष्य आर्य हैं । क्षेत्र आर्य, कर्म आर्य, चारित्र आर्य, इनके समान ही कुलपरम्परासे चले आ रहे जात्यार्योकी भी सिद्धि कर लेनी चाहिये । तिस ही प्रकार कुलपरम्परा अनुसार अविच्छिन्न संतानवाले मनुष्य मिथ्यात्व, हिंसा, आदि दोषों करके सेवित हो रहे म्लेच्छ प्रसिद्ध हो रहे हैं, म्लेच्छोंको स्वयं अपनी आत्मामें म्लेच्छपन का स्वसम्मेदन प्रत्यक्ष हो रहा है । हां, उनके पुत्र, मित्र, या देशान्तरीय अन्य म्लेच्छोंके म्लेच्छपन का शरीर व्यापार, वचनप्रवृत्तियां आदि करके अनुमान कर लिया जाता है । आर्योंको दूसरेके म्लेच्छ पनका या म्लेच्छमनुष्योंको दूसरोंके आर्यपनका भी अनुमान हो जाता है। भले ही कोई ऐंदू या अभिमानी पुरुष अपनेको बडा मानता रहे, किन्तु समय समयपर गुण और दोषोंका ठीक ठीक विवेक तो बालक, बालिकाओं, तक को हो जाता है। पण्डितपन या मूर्खपन, नारोगता, सरोगता, बलबत्ता, निर्बलता, सदाचार कदाचारके समान आर्यपन म्लेच्छपनका भी संज्ञी जीवोंको परिज्ञान हो सकता है कोई कठीन समस्या पाले नहीं पड गयी है । नित्यसर्वगतामूर्तस्वभावा सर्वथा तु या। जातिर्बाह्मण्यचांडाल्यप्रभृतिः कैश्चिदीर्यते ॥ ११ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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