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________________ ... तवार्थचिन्तामणिः ३८१ मनष्यका धड और दसरे वास्तविक गजमस्तककी भित्तिपर एक गजाननकी कल्पना कर ली है। इसी प्रकार मनुष्य और सिंहका योग बनाकर नरसिंह अवतार कल्पित किया गया है । वृक्षपर आकाशमें लटक रहा या आकाशमें उछल रहा आकाशका फल कल्पित हो जाता है। घी का घडा रुपयोंका वस्त्र, ये सब कल्पनायें वास्तविक परिणतियों के अनुसार कहींसे कहीं आरोप दी गयी हैं । मण्डूकशिखा, कच्छपरोम, आदिक सर्वथा असम्भव माने जा रहे पदार्थोकी कल्पनायें भी जब वस्तु भित्तिपर उठी हुयीं साध दी गयीं हैं तो प्रधान, ब्रह्माद्वैत, सन्निकर्षप्रमाणता, निर्गुणमोक्ष, क्षणिकवाद, कूटस्थता आदिक कुछ सम्भव और कुछ असम्भव हो रहे पदार्थों की कल्पना तो सुलभतया बीजभित्तिसहित साधी जा सकती है तथा परिपूर्ण रूपसे वस्तुभूत परिणतिओं अनुसार सम्भव रही आर्यत्व, म्लेच्छत्व, उच्चगोत्रता, नीचगोत्रता आदिकी कल्पना तो अतीव सुलभतासे समझायीं जा सकती हैं । मनुष्यपन, पशुपन, या सदाचार, असदाचार, अथवा अपराध, अनपराधका विवेक रखनेवालोंके सन्मुख आर्यपन म्लेच्छपनका निर्णय सुकर है। कथं वा कचित्संप्रदायात् पारमार्थिकी व्यवस्थामाचक्षाणो मनुष्येष्वेवार्येतरभावव्यवस्था काल्पनिकीमाचक्षीत ? प्रमाणांतराविषयत्वादिति चेत् न, आर्यम्लेच्छव्यवस्थाया गुणदोषनिबंधनायाः प्रत्यक्षानुमानाभ्यामिति प्रसिद्धरतः। तथाहि-स्वसंतानवर्तिनी हि मनुष्याणां आर्यत्वव्यवस्थितिः सम्यग्दर्शनादिगुणनिबंधना म्लेच्छव्यवस्थितिश्च मिथ्यात्वादिदोषनिबंधना स्वसंवेदनसिद्धा स्वरूपवत् । संतानांतरवर्तिनी तु सा व्यापारव्यवहाराकारविशेषस्य कार्यस्य विनिश्चयादनुमेया चेति न प्रमाणांतरागोचरा प्रत्यक्षातुमानाभ्यां प्रसिद्धायां च गुणनिबंधनायामार्यत्वव्यवस्थायां कासुचित् मनुष्यव्यक्तिषु युगादावव्यवछिन्नसंतानास्तथाभूतगुणैरर्यमाणा जात्यार्याः प्रसिद्धा भवंति क्षेत्राचार्यवत् तथा म्लेच्छाः । एक बात यह भी है कि नास्तिकपन, मनुष्यपन, पशुपन, आदिमें कहीं न कहीं सम्प्रदायसे वास्तविक व्यवस्थाको वखान रहा यह नास्तिक भला मनुष्यों में ही आर्यपन म्लेच्छपनकी व्यवस्थाको क्यों कल्पनानिर्मित कहेगा ? बताओ । सम्प्रदाय अनुसार मानी गयी व्यवस्थाको या तो सर्वत्र कल्पित कहे अथवा कहीं भी कल्पित नहीं कहे । कहीं कुछ और कहीं कुछ, यों " अर्थजरतीय ” न्यायका अनुसरण उचित नहीं है। यदि नास्तिक यों कहे कि आर्य, म्लेच्छव्यवस्था तो किन्हीं अन्य प्रमाणोंका विषय नहीं है, इस कारण कल्पित है, आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि गुणोंको कारण मानकर हुयी आर्यव्यवस्थाकी और दोषोंके निमित्त कारणपनसे हुई म्लेच्छव्यवस्थाकी इन प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणोंसे यों वक्ष्यमाण प्रकार अनुसार प्रसिद्धि हो रही है। उसीको प्रन्यकार स्पष्ट कर दिखलाते हैं कि अपने निज आत्माकी ऊर्वतासामान्य द्वारा पूर्वकालोसे चली आ रही संतानमें वर्त रही मनुष्योंकी आर्य
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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