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तत्वार्यलोकवार्तिके
जैसे कि सत्य होरहे सिंहपशुकी मिट्ठीके खिलौनेमें या शूरवीर पुरुषमें कल्पना कर ली जाती है । अथवा विकल्पज्ञान करनेको भी कल्पना कह सकते हैं जैसे कि जहां जहां धूम होता है, वहां अग्नि होनी चाहिये, दिनमें नहीं खाते जो मोटे शरीरवाले होंगे वे जीव रातको अवश्य खाते होंगे, यह चंचल बालक अग्नि है, बोझ ढोनेवाला मनुष्य बैल है, सिद्ध परमात्मा शरीररहित होगे, प्रत्येक उद्योगी मनुष्यको कुछ न कुछ धुन चढी रहती है, इत्यादि विकल्पोंका उठाना भी कल्पना है। उक्त दो लक्षणोंके अतिरिक्त तीसरा कोई उपाय कल्पनाका नहीं है। अतः दोनों प्रकारसे आर्यपन और म्लेच्छपनकी कल्पना करनेमें नास्तिकके यहां वास्तविक उस आर्यपन या म्लेच्छपनकी सिद्धि होजाती है। कोई खटका नहीं रहा ।
प्रधानाद्वैतादिकल्पनानामपि हि निर्षीजानामनुपपत्तिरेव सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थस्य प्रधानत्वेन नराधिपादौ मसिद्धनाध्यारोपस्य प्रधानकल्पनात्वात् । कचिच्चैकत्वस्याद्वैतस्य प्रमाणतः सिद्धस्य सर्ववस्तुष्वध्यारोपणस्यादैतकल्पनात्वादन्यथा तदसंभवात् ।
____नास्तिक यदि यो आक्षेप करें कि जब सभी कल्पनायें वस्तुभूत परिणतियोंके अनुसार वास्तविक सिद्ध होजायंगी तब तो सांख्यमतियोंके यहां निर्णीत किये गये प्रधानकी कल्पना भी यथार्थ बन बैठेगी । वेदांतियोंने ब्रह्माद्वैतको स्वीकार किया है । जैनोंने उसको ब्रह्माद्वैतकी कल्पना करना ठहराया है। ऐसी दशामें वह ब्रह्माद्वैत भी वस्तुभूत बन बैठेगा । इसी प्रकार ईश्वर, अल्लाह, ईसा या नरसिंह, गजानन, बुद्ध, आकाशपुष्प आदि की कल्पनायें भी परमार्थ बन जायेंगी । सत्य झूठका विवेक उठ जायगा। कोई भी मतानुयायी अन्य मतावलम्बीका खंडन नहीं कर सकेगा, ऐसा आक्षेप उत्पन्न होय, इसके प्रथम ही ग्रंथकार बहुत अच्छा सिद्धांतसमाशन करे देते हैं कि प्रकृति, ब्रह्माद्वैत, ज्ञानाद्वैत, ईश्वरकर्तृत्व, आदिक कल्पनाओंकी भी विना बीजके सिद्धि नहीं हो पाती है। कारण कि सांख्योंने " सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः " सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, इनकी समानताको लिये हुये जो अवस्था है उसको प्रकृति माना है । प्रकृति कहो चाहे प्रधान कहो एक ही अर्थ है । वह प्रधानपना राजा, सभापति, जज आदिमें वास्तविक प्रसिद्ध होरहा है । सांख्योंने सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणकी साम्य अवस्थामें उसका अध्यारोप कर प्रधानकी कल्पना कर ली है। इसी प्रकार किसी एक आकाश या सुदर्शन मेरु अथवा अन्य किसी अकेले अनुपम पदार्थमें अद्वैतस्वरूप एकत्व की प्रमाणोंसे सिद्धि की जाचुकी है । ब्रह्माद्वैतवादियोंने उस प्रमाणसिद्ध एकत्वका संपूर्ण वस्तुओंमें अध्यारोप कर अद्वैत की कल्पना उठाली है। क्योंकि अन्य प्रकारोसे उस कल्पनाका असंभव है । भावार्थ-कतिपय पदार्थोंका कीपन मनुष्य या पशुओंमें देखा जाता है। नैयायिकोंने शुद्ध आत्मामें यावत् कार्योंका कीपन झूठमूठ गढलिया है। अल्लाह या ईसा भी कोई विशेष पुरुष हुये हैं,उनके भक्तोंने उनमें मोक्षदायकत्व,व्यापकत्व,जगत्कर्तृत्व आदिक धर्म मनमाने गढ लिये हैं। मनुष्पके धड और हाथी के शिरका योग होकर एक जीवका अनेक दिनोंतक जवित रहना असम्भव है। फिर भी प्राकृत सिद्धान्तोंका नहीं विचार करनेवाले गणेशभक्तोंने वास्तविक