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तत्वार्थचिन्तामणिः
नास्तिक ही थे । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह भी तो अविच्छिन्न हो रही सम्प्रदायसे ही नास्तिकको समझना पडेगा, अन्य प्रकारों से वह पूर्वकालवर्ती या क्षेत्रान्तरवर्ती अथवा चाहे किसी भी कर्ममें लग रहे मनुष्यों के नास्तिकपनका निर्णय कथमपि नहीं कर सकता है । नास्तिकवादी यदि ढिंढोरा पीटकर यों ही आग्रह करता फिरे कि यह मेरा सम्प्रदाय ही प्रमाण है, किन्तु फिर सनातन या स्याद्वादियों का आर्यम्लेच्छ व्यवस्थाको प्रतिपादन कर रहा सम्प्रदाय 'प्रमाण नहीं है, आचार्य कहते हैं कि यह नास्तिकका केवल मनोरथ ही है । इसमें यथार्थता अणुमात्र भी नहीं है । क्योंकि नास्तिक के सम्प्रदाय में प्रमाणपन और आर्यम्लेच्छप्रतिपादक आम्नायमें अप्रमाणपनकी व्यवस्थाको करानेवाली प्रतीतियोंका अभाव है 1
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जातमात्रस्य जंतोरार्येतरभावशून्यस्य प्रतीतेः प्रमाणं तद्भावाभावविषयः संप्रदाय इति चेन्न, तस्याप्यार्येतर भावप्रसिद्धेरन्यथा व्यवहारविरोधात् । कल्पनारोपितस्तद्व्यवहार इति चेत्, तन्निर्बीजायाः कल्पनाया एवासंभवात् कचित्कस्य चित्तत्रतः प्रसिद्धस्याऽन्यत्रारोगे हि कल्प दृष्टा विकल्पमात्रम्वा गत्यंतराभावात् उभयथा चार्येतर भावकल्पनायां वास्तवी तद्भावसिद्धिः ।
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नास्तिक पण्डित कह रहा है कि बुद्धिमान् या वृद्ध पुरुषों की तो बात ही क्या है, केवल थोडे दिनोंके उत्पन्न हुये मनुष्य या पशुपक्षियों तकको आर्यपन और उससे न्यारे म्लेच्छपन के रहितपनकी अपनेमें और अन्य प्राणियोंमें प्रतीति हो रही है । इस कारण उस आर्यपन म्लेच्छपन परिणति के अभावको विषय कर रहा हम नास्तिकोंका सम्प्रदाय तो प्रमाण है । तुम आस्तिकों का सम्प्रदाय प्रमाण नहीं । अर्थात् – अन्धश्रद्धावाले अतिवृद्धपुरुष भले ही आर्यपन म्लेच्छपन को कहें जावें, किन्तु यावत् प्राणियोंमें आर्यपन म्लेच्छपन, स्वजाति, कुलीनता, उच्चवर्णपना, नीच वर्णपना आदिकी प्रतीति नहीं हो रही है । आर्योंके शरीरमें कोई दूध नहीं भरा है और म्लेच्छ या चाण्डालों की देहमें कीच नहीं भर गई है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उस उत्पन्न हुये प्राणिमात्रको भी आर्यपन और उससे न्यारे म्लेच्छपन की प्रसिद्धि हो रही है । अन्यथा आर्यव्यवहार या म्लेच्छव्यवहारका विरोध हो जायगा । देखो, चमार, कोरियों के छोकरा भी अपनेमें नीचगोत्रका अनुभव कर रहा है, जब कि उच्च आचरणवाले त्रैवर्णिक पुरुष अपने में संतान क्रमसे चली आ रही उच्चगोत्र व्यवस्थाका सम्वेदन किये जा रहे हैं । कुलीनताका प्रभाव आता है, पर आता है । यदि नास्तिकवादी यों कहे कि वह आर्यपन म्लेच्छपनका व्यवहार तो झूठी कल्पनाओं से आरोपा गया है । वास्तविक परिणामों की भित्तिपर अवलम्बित नहीं है, यों कहनेपर तो आचार्य समाधान करते हैं कि उस व्यवहारकी बीजरहित कल्पना का ही असम्भव है । उत्पादक वस्तुभूत बीजका सहारा पकड़कर ही कल्पना की जा सकती है। कल्पनाका लक्षण यह है कि कहीं न कहीं स्थलपर वास्तविक रूपसे प्रसिद्ध हो रहे किसी न किसी पदार्थ का अन्य पदार्थ में आरोप कर लेना ही कल्पना करना देखा गया है,