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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
न संप्रदायाव्यवच्छेदोऽसिद्धस्तद्विदां नास्तिकसंप्रदायाव्यवच्छेदवत् , नाप्यप्रमाणं मुनिश्चितासंभवद्धाधकत्वात्तद्वत् । ततः संतानेनार्यम्लेच्छव्यवस्थितिस्तद्विद्भिनिश्चेतव्या । नास्तिक संतानव्यवस्थितिवत् । सर्वः सर्वदार्यत्वम्लेच्छत्वशून्यो मनुष्यसंतान इत्यत्रापि संप्रदायाव्यवच्छेद एव नास्तिकानां शरणं प्रत्यक्षानुमानस्य च तत्राव्यापारात् । यथा चाहं नास्तिकस्तथा सर्वे पूर्वकालवर्तिनो नास्तिका जात्यादिव्यवस्थानिराकरणपरा इत्यपि संप्रदायादेवाविच्छिन्नादवगंतव्यं नान्यथा । अयमेव संप्रदायः प्रमाणं न पुनरार्यम्लेच्छव्यवस्थितिप्रतिपादक इति मनोरथमा प्रतीत्यभावात् ।
आम्नायका ज्ञान रखनेवाले पुरुषोंके यहां धाराप्रवाह रूपसे चली आ रही सम्प्रदायका नहीं टूटना असिद्ध नहीं है, जैसे कि नास्तिकपनेकी सम्प्रदायका व्यवच्छेद नहीं होना असिद्ध नहीं है । अर्थात्-जो नास्तिकजन सभी मनुष्योंने आर्यपन और म्लेच्छत्वको स्वीकार नहीं कर रहे, यों वखानते हैं कि हम सम्पूर्ण मनुष्योंको एकसा मानते हैं, जाति, वर्ण, कुलीनता, कोई वस्तु नहीं है। पुरुखापंक्तिसे हमारे यहां ऐसा ही नास्तिकपनेका प्रवाद चला आ रहा है। उन नास्तिकोंके यहां भी अपनी इष्ट सम्प्रदायका नहीं टूटना अभिप्रेत किया गया है। उसीको दृष्टान्त बनाकर श्री विद्यानन्द आचार्यने सम्प्रदाय अनुसार आर्यपन और म्लेच्छपनकी व्यवस्थाको साध दिया है। तथा वह आर्यपन और म्लेच्छ पनकी सम्प्रदायका अव्यवच्छेद ( पक्ष ) अप्रमाण भी नहीं है ( साध्य ), बाधकोंके असभा होने का अच्छा निश्चय हो चुकनेते ( हेतु ) जैसे कि नास्तिकोंने अपने नास्तिकपनके सम्प्रदा4जटूटको अनमाण नहीं माना है ( अन्वयदृष्टान्त ) । अथवा वास्तविक रूपसे विचार करनेपर
नास्तिकपनके सम्प्रदायका नहीं टूटना अप्रमाण भी है और उसके बाधकप्रमाणोंका सद्भाव भी निर्णीत हो रहा है । ऐसी दशामें नास्तिक सम्प्रदायका अव्यवच्छेद व्यतिरेकदृष्टान्त माना जा सकता है । सम्प्रदायाव्यवच्छेदरूप तित निर्दोष हेतुसे मातापिताओंकी सन्तान द्वारा आर्यम्लेच्छव्यवस्थाका उस उस सम्प्रदायके जाननेवाले पुरुखाओं करके निर्णय कर लेना चाहिये, जैसे कि नास्तिकपिता, पितामह, प्रपितामह, आदिकी सन्तान द्वारा नास्तिकपनकी व्यवस्था उनके यहां निर्णीत हो रही है। जो कोई नास्तिक यों कह रहे हैं कि मनुष्योंकी आगे पीछे यहां वहांकी सम्पूर्ण सन्ताने सदासे ही आर्यपन म्लेच्छपनसे शून्य हैं, ग्रन्थकार कहते हैं कि यों इस सिद्धान्तके करनेमें भी तो नास्तिकोंको सम्प्रदायो अव्यवच्छेदका ही शरण लेना पडेगा। तभी पुरुखाओंसे चली आ रही किम्वदन्ती अनुसार वे सम्पूर्ण मनुष्योंमें आर्यम्लेच्छरहितपनेका ज्ञान कर सकेंगे। क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण और अनुमानप्रमाणका उस आर्थपन या म्लेच्छपनकी शून्यताको जाननेमें व्यापार नहीं है । वह नास्तिक यदि अनुमान भी बनायगा तो सम्प्रदायकी सामर्थ्यी भरोसेपर ही यों बन सकता है कि जिस प्रकार कि मैं नास्तिक हूं उसी प्रकार पूर्वकालोंमें वर्तनेवाले सम्पूर्ण मनुष्य भी जाति, क्षेत्र, कुल, आदिकी व्यवस्थाके निराकरणमें तत्पर हो रहे