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तत्वार्थ लोकवालिक
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करनेवाले कारणों का सदा रहितपना होने से ( हेतु ) उन ही आकाश या सत्ता के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । तीसरा अनुमान जातिके अमूर्तपन स्वभावको साधने के लिये यों बना सकते हैं कि जाति अमूर्त है ( प्रतिज्ञा ) परिमाण गुणका अभाव होनेसे ( हेतु ) किया के समान ( अन्वयदृष्टान्त ), आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कोई एक पण्डित कर रहे हैं । वे पण्डित यहां यों पूछने योग्य हैं. कि सर्वव्यापक हो रही संती वह जाति भला व्यक्तियों के अन्तरालमें किस कारण से स्वकीय ज्ञानको नहीं उपजा पाती है ? बताओ । यदि वैशेषिक यों कहे कि अन्तराल में अपने प्रकट करनेवाले आश्रय हो रहे व्यक्तिविशेषका अभाव हो जानेसे वह जाति वहां अभिव्यक्त नहीं है, तिस कारण मध्यवर्ती अन्तरालमै विद्यमान हो रही भी जाति स्वकीयज्ञान की उत्पादक ( उत्पादिका ) नहीं है । अर्थात् - एक ब्राह्मण मनुष्य व्याकरण पढ रहा है। दूसरा ब्राह्मण व्यक्ति एक कोश दूरपर भोजन कर रहा है । उन दोनों व्यक्तियोंमें ब्राह्मगल जाति है और मध्यदेशयत अन्तराल में भी वह व्यापक ब्राह्मणत्वजाति तिष्ठ रही है । परन्तु अप्रकट होनेसे ब्राह्म गपन की ज्ञप्ति नहीं करा पाती है। किन्तु जहां ब्राह्मण पुरुष व्यक्तियां विद्यमान हैं, वहां प्रकट हो रही ब्राह्मण जाति स्वज्ञानको करा देती है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि सकलरूपते उस जाति की व्यक्तिविशेषों द्वारा अभिव्यक्ति के कर देने पर यदि कहीं एक स्थलपर जातिका उपलम्भ होगा तो सम्पूर्ण रूपसे प्रकट हो चुकी जाति के सर्वत्र ( अन्तरालमें ) भी उपलम्भ हो जानेका प्रसंग आवेगा । यदि व्यंजक कारणों द्वारा एक एक देश से जाति की अभिव्यक्ति करना अभीष्ट किया जायगा तब तो जातिको अवयव सहितपने का प्रसंग आता है । जातिके अनेक अवयव होनेपर ही तो कहीं प्रकटता अन्यत्र कहीं अप्रकटता सम्भव सकेगी। अन्यथा नहीं। किन्तु जातिको नित्य, निरवयव, व्यापक, अखण्ड, अमूर्त, माननेवाले वैशेषिक पण्डित जातिका सावयवपना तो अभीष्ट नहीं करेंगे । उनको अपसिद्धान्त दोष लग जानेका भय बना हुआ 1
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ननु च कार्त्स्न्येनाभिव्यक्तावपि जातेर्न सर्वत्रोपलंभः सामय्यभावात्, स्वव्यक्तिदेश एव हि तदुपलंभसामग्री प्रतीता इन्द्रियमन आकाशादिवत् न च व्यक्त्यंतरा ले सास्तीति केचित् । तदप्यसंगतं, घटादेरेवं सर्वगतत्वमसक्तेः । शक्यं हि वक्तुं घटादीनां सर्वगतत्वेपि न सर्वत्रीपलंभः सामग्र्यभावात् कपालादिदेश एव हि तदुपलंभ सामग्री न च सा सर्वत्रास्तीति कपालादेरप्यवयविनः सर्वगतत्वेपि न सर्वत्रोपलंभः स्वावयवोपलंभ सामग्र्यभावादित्येवमनंतशः परमाणूनामनवयवित्वादसर्वगतत्वे सर्वत्रोपलं भाभावात्पर्यनुयोगनिवृत्तिरिति । यदि पुनर्घटादेः सर्वगतत्वकल्पनाया प्रत्यक्षविरोधः प्रतिनियतसंस्थानस्य प्रत्यक्षत्वात् अनुमानविरोधश्च । न सर्वगतो घटादिः सावयवत्वात् मूर्तिमत्वात् परमाणुवत् इत्य नुमानादसर्वगतत्वसिद्धेरिति मतं, तदा जातिसर्वगतत्त्र कल्पनानामपि स एव प्रत्यक्षादिविरोधः सादृश्यलक्षणाया एव जातेरसर्व