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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ३७३ स्वरूपों का धारक होनेसे ( हेतु ) लम्बाई, चौडाई, मोटाई, रूप विशेषताओंको धारनेवाले परिमाणके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) अथवा प्रमाण ज्ञानके समान । अर्थात् — जैसे परपदार्थों की अपेक्षा न्यून होते होते और आत्म विशुद्धि के बढते बढते जैसे ज्ञानमें प्रमाणता बढती जाती है, उसी प्रकार जीवोंमें ऋद्धि शक्तियां भी बढती जाती हैं। थोडे थोडे ज्योतिषविद्या, भूशास्त्र, स्वरशास्त्र के, जाननेवाले आजकल भी पाये जाते हैं । एक विद्यार्थी पहिली बार अष्टसहस्रीको छह महीनेमें पढता है । पुनः पाठको विचारता हुआ पन्द्रह दिनमें हृदयंगत कर लेता है । पश्चात् परिशीलन करता हुआ चार ही दिनमें पूरे अष्टसहस्री ग्रन्थका अनुगम कर लेता है । यों अभ्यास करते हुये वह छात्र परीक्षा कालमें अष्टसहस्रके प्रभेयको अन्तर्मुहूर्त्त में ही अनुगत कर लेता है । कबूतर, बिच्छू के मल, मूत्रमें कितनी ही लाभदायक शक्तियां हैं । हर्ष अवस्थामें या व्यायाम करनेपर शरीर फूल जाता है । चिन्ता, शोक, अवस्थामें शरीर कृष हो जाता है । शारीरिक वायुको वशकर प्राणायाम द्वारा कतिपय चमत्कार दिखा दिये जाते हैं । आकाश या जलमें मनुष्यका चलना बन सकता है । अनेक जीवों का वशमें कर लेना कोई अशक्य नहीं है । कई साधुओं की घोर तपस्या प्रसिद्ध है। मांत्रिक, तांत्रिक, पुरुषों के देखने मात्रसे कतिपय विष उतर जाते है । हां, उत्कट तपस्यावोंको आचरनेवाले आर्य मुनियोंके उक्त ऋद्धियां अत्यधिक रूपसे बढ़ जाती हैं । जो अतिशय क्रम क्रमसे बढ रहा है । वह आकाशमें परिमाण के समान पूर्ण प्रकर्षता को भी प्राप्त कर लेता है । जब कि जड पदार्थ ही विज्ञान प्रयोग अनुसार अनेक चमत्कारोंको कर रहे हैं, तो अनन्तशक्तिवाले आत्मा की ऋद्धियों के साधने में कोई संशय नहीं रह जाता है। 1 यथा परिमाणमापरमाणोः प्रकृष्यमाणस्वरूपमाकाशे परमप्रकर्षपर्यंत प्राप्तं सिद्ध्यत्तदंतराले अनेकधा परिमाण प्रकर्ष साधयति तथा सर्वजघन्यज्ञानादिगुणार्धविशेषादारभ्यर्धिविशेषः प्रकृष्यमाणस्वरूपं परमप्रकर्षपर्यंतमाप्लवन्नंतरालर्धिविशेषप्रकर्ष साधयतीति संभाव्यंते सर्वे बुध्यतिशयर्धिविशेषादयः परमागमप्रसिद्धाचेति न किंचिदनुपपन्नं । के पुनरसंप्राप्तर्धय इत्यावेदयति । जैसे कि प्रत्येक द्रव्यमें पाये जा रहे प्रदेशवत्त्व गुणका विवर्त लम्बाई, चौडाई मोटाई, रूप परिमाणसे जैसे एक प्रदेशी परमाणुसे प्रारम्भ कर अपने अपने शनैः शनैः बढ रहे स्वरूपको धार रहा सीमापर्यन्त पहुंचकर आकाशमें परमप्रकर्षको प्राप्त हो चुका सिद्ध हो जाता है और उसके अन्तरालमें पाये जानेवाले अनेक प्रकार परिमाणोंके प्रकर्ष को साथ देता है । अर्थात – सबसे छोटा परिमाण परमाणुका है और आकाशका सबसे बडा नाप है । बिचले घट, गंगानदी, जम्बूद्वीप, स्वयंभूरमण समुद्र, लोकाकाशये मध्यम परिमाणवाले हैं । उस ही प्रकार सबसे छोटे लब्ध्यपर्याप्तक निगोदिया जीवके जघन्यज्ञान, अत्यल्प कायबल, आदि गुणस्वरूप ऋद्धि विशेषोंसे प्रारम्भ कर बुद्धि, बल, आदि ऋद्धियोंके विशेष भला अपने बढ रहे स्वरूप के परम प्रकर्ष पर्यन्त प्राप्त हो रहे सते अन्तरालवर्ती ऋद्धिविशेषोंके प्रकर्षको साध देते हैं । इस ढंगसे सभी बुद्धिका अतिशय रूप विशेष ऋद्धि या
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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