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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
विक्रिया विशेष ऋद्धि, बल ऋद्धि, आदिको धारनेवाले आर्य मनुष्य सम्भावित हो रहे हैं। यों अनुमानसे ऋद्धिधारी मनुष्योंकी सिद्धि हो रही है । तथा सर्वज्ञ आम्नायसे प्राप्त हुये सर्वोत्कृष्ट आगम प्रमाण द्वारा भी ऋद्धिप्राप्त आर्य प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार कोई भी ऋद्धि या ऋद्धिधारियोंकी अनुपपत्ति नहीं है । यहां कोई पुनः प्रश्न उठाता है कि ऋद्धिप्राप्त आर्य मनुष्यों को हम निर्णीत कर चुके हैं । अब महाराज फिर यह समझाइये कि वे ऋद्धियोंकी भले प्रकार प्राप्तिसे रहित हो रहे आर्य भला कौनसे मनुष्य हैं ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी वार्तिक द्वारा समाधानका विज्ञापन करते हैं।
असंप्राप्तधयः क्षेत्राचार्या बहुविधाः स्थिताः। क्षेत्राद्यपेक्षया तेषां तथा निर्णीतियोगतः ॥५॥
ऋद्धियोंकी सम्प्राप्तिसे रीते हो रहे दूसरे आर्य तो क्षेत्र आर्य, जाति आर्य, इत्यादिक बहुत भेद, प्रभेदवाले व्यवस्थित हो रहे हैं । क्षेत्र, कर्म, आदिकी अपेक्षा करके उन मनुष्योंका तिस प्रकार क्षेत्रसे आर्य, जातिसे आर्य, आदि स्वरूपोंकरके निर्णय हो जानेका योग मिल रहा है।
क्षेत्रार्या, जात्यार्याः, कार्याश्चारित्रार्या, दर्शनार्याश्चेत्यनेकविधाः क्षेत्राद्यपेक्षया अनृद्धिप्राप्ताः प्रत्येतव्या तथा प्रतीतियोगात् ।
क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्मार्य, चारित्रार्य, दर्शनार्य, इस ढंगसे क्षेत्र आदिककी अपेक्षा करके अनेक विकल्पवाले ऋद्धि प्राप्तिसे शून्य हो रहे आर्य समझ लेने चाहिये । क्योंकि तिस प्रकारकी प्रतीतियोंका योग पाया जा रहा है । अर्थात्-इस आर्यखण्डमें काशी देश, अवधप्रान्त, विहार प्रदेश, आदिमें जन्म लेकर बस रहे मनुष्य तो क्षेत्रकी अपेक्षा आर्य हैं । इक्ष्वाकुवंश, नाथवंश आदि कुलोंमें उत्पन्न हुये पुरुष जाति अपेक्षा आर्य हैं । पाप कर्मा, अल्प पापकर्मा और निष्पापकर्मा, की अपेक्षा कर्मायाके तीन भेद हैं । यों-अध्ययन, अध्यापन, असि, मषी, आदि कोके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्णवाले मनुष्य या श्रावक, मुनि, भी कर्म आर्य हैं । चारित्र पालनेकी अपेक्षा ग्यारहवें, बारहवें, गुणस्थानवी मनुष्य अथवा अन्य भी चारित्रवान् पुरुष चारित्र आर्य हैं | दश प्रकारके सम्यग्दर्शनको धारनेवाले दर्शन आर्य हैं। - के पुनर्लेच्छा इत्याह ।
आर्योकी प्रतिपत्ति हो चुकनेपर कोई शिष्य पूंछता है कि फिर म्लेच्छ मनुष्य कौनसे हैं ? यों जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिमवार्तिक द्वारा समाधान वचनको कहते हैं ।
तथान्तीपजा म्लेच्छाः परे स्युः कर्मभूमिजाः। आद्याः षण्णवतिः ख्याता वार्धिद्वयतटद्वयोः ॥ ६॥