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________________ ३७२ तत्वार्थ लोकवार्त जब कि वे ऋद्धियों को प्राप्त होचुके आर्य सात प्रकारकी ऋद्धियोंके आश्रय होरहे हैं, इस ही कारण सात प्रकारवाले माने गये हैं । सात प्रकारकी बुद्धि आदिक ऋद्धियां तो फिर यह हैं । उन हीको ग्रंथकार दिखलाते हैं। बुद्धिऋद्धि, तपऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, औषधऋद्धि, रसऋद्धि, बलऋद्धि, अक्षीणऋद्धि, नाना प्रदवाली सात ऋद्धियां अच्छी जतायीं गयीं हैं । उन ऋद्धियों की विशेषतासे आर्य ऋद्धिको प्राप्त कर चुके होजाते हैं । बुद्धिऋद्धि के विशेष भेद हो रहीं बीजऋद्धि, कोष्ठऋद्धि, आदिको प्राप्त हो रहे आर्य हैं। इस कारण वे बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि, पदानुसारी, संभिन्नश्रोता, आदि माने जाते हैं तथा तपोि विकल्प हो रहीं उग्रतप, दीप्ततप, तप्तऋद्धि आदिको प्राप्त हुये आर्य तप्ततपाः, महाघोरतपाः, उग्रतपाः, आदिक कहे जाते हैं और विक्रिया के विशेष हो रहीं ऋद्धियोंको प्राप्त हुये आर्य एकत्वविक्रिया, अणिमा, महिमा, गरिमा, आदि क्रियाओंको करनेमें समर्थ हो रहे स्मरण किये गये हैं एवं औषध ऋद्धिके विशेष अंशों को प्राप्त हो चुके आर्य जल्लोषधिप्राप्त, मलैौषधि प्राप्त, दृष्टिविष, आदि गाये गये हैं। रस ऋद्धिको प्राप्त हो रहे आर्य तो क्षीरास्रवी, मध्यास्त्रवी, आदिक हैं । मनोबली, वचनबली, आदिक आर्य जिनागममें बल के विशेष हो रहीं ऋद्धियोंको प्राप्त हुये समझे गये हैं। अक्षीण ऋद्धिके विकल्प होरहीं ऋद्धियों को प्राप्त कर चुके आर्य मुनि फिर अक्षीण महालय आदिक बोले गये हैं । इस प्रकार ऋद्धि प्राप्त आर्योंके सात भेद हैं । दूसरे श्री अकलंक देव प्रभृति आचार्य ऋद्धि प्राप्त आयको आठ प्रकार स्वीकार करते हैं। वे आठ प्रकार बुद्धिऋद्धि, क्रियाऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, तपऋद्धि, बलऋद्धि, औषधऋद्धि, रसऋद्धि, क्षेत्रऋद्धि इन आठ भेद बालीं ऋद्धियों के धारनेसे होजाते हैं । अर्थात् — उन सातों का इन आठोंसे अविरोध है । क्रियाऋद्धिका विक्रिया ऋद्धिमें ही अंतर्भाव कर लिया जाता है । अक्षीण ऋद्धि और क्षेत्रऋद्धिका अभिप्राय एक ही है । प्रवक्ताओंकी वचनभंगी अनुसार भेद करनेमें शद्वकृत अंतर भले ही पड जाय, अर्थमें कोई अंतर नहीं है। चाहे अनुमानके प्रतिज्ञा, हेतु ये दो अवयव मान लिये जांय अथवा पक्ष, साध्य, हेतु, ये तीन अंग मान लिये जाय एक ही तात्पर्य बैठता है । महां किसीका प्रश्न है कि वे ऋद्धियां या ऋद्धिधारी आर्य भला किस प्रमाणसे निर्णीत होकर संभावना करने योग्य हैं ? प्रत्यक्ष प्रमाणसे अत्र, अधुना, ऋद्धिधारी मनुष्यों के दर्शन होना दुर्लभ है। एक बात यह भी पूंछनी है कि अष्ट महानिमित्तका ज्ञान अणु शरीर बना लेना, मेरुसे भी बड़ा शरीर बना लेना छोटेसे स्थानमें असंख्य जीवोंका निर्बाध बैठ जाना इत्यादिक ऋद्धियों की शक्तियां कैसे समझ ली जांय ? यो जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द स्वामी समाधान वचनको कहते हैं । संभाव्यंते च ते हेतुर्विशेषवशवर्तिनः । केचित्प्रकृष्यमाणात्म विशेषत्वात्प्रमाणवत् ॥ ४ ॥ ऋद्धिको प्राप्त हुये कितने ही एक आर्य (पक्ष) अपने अपने विशेष हेतुओंकी अधीनता से वर्त रहे संते संभावित होरहे हैं ( साध्य ) तारतम्य मुद्रा अनुसार प्रकर्षको प्राप्त होरहे अपने अपने विशेष
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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