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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार में घोषित किया है । श्री रविषेणाचार्यने पद्मपुराणमें “ न जातिर्गर्हिता काचिद् गुणाः कल्याणकारणम्, व्रतस्थमपि चांडालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः " लिखा है । राजवार्तिकमें दशों प्रकारके सम्यग्दर्शनको धारनेवाले जीवोंको " दर्शनार्य " कहा है। ऐसी दशामें शूद्र या तिर्यच अथवा म्लेच्छ भी आर्योंमें गिने जा सकते हैं । किन्तु सम्पूर्ण तिर्यचोंके भले ही वे उत्तम भोगभूमियां क्यों न हो, श्री गोम्मटसारमें नीच गोत्रका ही उदय माना गया है । शूद्रों के भी नीच गोत्रका उदय है । साथमें “ जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः, येषां स्युस्ते त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः " यह सिद्धांत भी जागरूक है । सर्वथा म्लेच्छों केसे व्यवहारमें लवलीन होरहे यवन, खुरपल्टा, कसाई, चर्मकार, आदिको क्षेत्रकी अपेक्षा आर्य कहा जा रहा है । शूद्र, श्रावक या तिच श्रावकको अल्प सावद्य कर्मा आर्यों में गिनाया है । ऐसी पर्यालोचना करनेपर यह प्रतीत होजाता है कि 1 आयके उच्चगोत्रका उदय और म्लेच्छों के नीचगोत्रका उदय मानना बाहुल्यकी अपेक्षा स्वरूप कथन मात्र है । लक्षण नहीं है । विशेषज्ञ विद्वान् इस पर और भी अधिक विचार कर सकेंगे ।
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प्राप्तर्द्धतरभेदेन तत्रार्या द्विविधाः स्मृताः । सद्गुणैरर्यमाणात्वाद्गुणवद्भिश्च मानवैः ॥ २ ॥ तत्र प्राप्तर्द्धयः सप्तविधर्धिमधिसंसृताः । बुद्ध्यादिसप्तधा नाना विशेषास्तद्विशेषतः ॥ ३॥
उन मनुष्यों में आर्य मनुष्य तो ऋद्धि प्राप्त और इतर यानी " जो ऋद्धि प्राप्त नहीं हैं " इन दो भेदों करके दो प्रकारके आम्नाय द्वारा माने गये हैं । आर्यशद्वकी निरुक्ति इस प्रकार है कि समीचीन गुणों करके अथवा गुणवान् मनुष्यों करके जो सेवित होरहे हैं, इस कारण वे सेवनीय पुरुष आर्य मनुष्य कहे जाते हैं । उन आयौमें ऋद्धियों को प्राप्त होचुके मनुष्य तो सात प्रकार की ऋद्धियों पर 1 अधिकार करते हुये ऋद्धियोंसे संगत होरहे हैं । अपने अपने उन भेद प्रभेदोंसे अनेक विकल्पों को धार रहीं वे ऋद्धियां बुद्धि ऋद्धि, तप ऋद्धि, आदि सात प्रका हैं 1
ऋद्धिप्राप्तार्याः सप्तविधाः सप्तविधर्धिमासृता हि ते । सप्तविधर्धिः पुनर्बुध्यादिस्तथाहिबुद्धितपोविक्रियैौषधरसबलाक्षीणर्द्धयः सप्त प्रज्ञापिताः नाना विशेषाश्च प्राप्तर्धयो भवत्यार्यास्तद्विशेषात् । बुद्धिविशेषर्धिमाप्ता हि बीजबुध्यादयः, तपोविशेषर्धिप्राप्तास्तप्ततपःप्रभृतयः, विक्रि - याविशेषर्धिप्राप्ता एकत्वविक्रियादिसमर्थाः, औषधविशेषर्विप्राप्ताः जल्लोषधिप्राप्तादयः, रसप्राप्ताः क्षीरस्राविप्रभृतयः, बलविशेषर्धिप्राप्ता मनोबलप्रभृतयः, अक्षीणविशेषर्धिमाप्ताः पुनरक्षीणमहालयादय इति । अन्ये त्याहुः ऋद्धिप्राप्तार्या अष्टविधाः बुद्धिक्रियाविक्रियातपोबलैौषधरसक्षेत्रभेदादिति । ते कुतः संभाव्या इत्याह ।
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