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________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके जिस कारणसे कि मानुषोत्तर पर्वतसे पहिले पहिले ही ढाई द्वीपमें मनुष्य हैं, किन्तु मानुषोत्तरके परली ओर मनुष्य नहीं हैं । तिस प्रकार के कर्मकी सामर्थ्यसे उत्पन्न हुये वे मनुष्य आर्य और म्लेच्छ समझ लेने चाहिये। उच्चैर्गोत्रोदयादेरार्या, नीचैर्गोत्रादेश्च म्लेच्छाः। तिस तिस प्रकारके पौद्गलिक कर्मों अनुसार आर्य अथवा म्लेच्छ मनुष्य उपज जाते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि संतान क्रमसे चले आ रहे उच्च आचरणके सम्पादक उच्चगोत्रका उदय हो जानेसे अथवा क्षेत्र, जाति, कर्म, आदिकी व्यवस्था अनुसार या गुणसेव्यता, भोगभूमि सम्बन्धी मनुष्य शरीर, आदि कारणोंसे आर्य मनुष्य हो जाते हैं। तथा नीच आचरणके सम्पादक नीच गोत्रका उदय, कुभोगभूमि या म्लेच्छ खण्डोंमें उत्पत्ति, नीच क्रियायें निर्लज्ज भाषण आदि निमित्तोंसे म्लेच्छ । मनुष्य हो जाते हैं। भावार्थ-सर्वत्र अन्तरंग बहिरंग कारणोंसे ही प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति हो रही है । यद्यपि धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार, आदिक शिल्पकर्मा आर्योंके शूद्र होनेके कारण नीच गोत्रका उदय माना गया है । तथा म्लेच्छ खण्डोंके मनुष्योंको भी संयमकी प्राप्ति हो सकनेके कारण उच्चगोत्रका उदय मानना पडेगा । क्योंकि " देसे तदियकसाआ णीचं एमेव मणुस सामण्णे ” पांचवें गुणस्थानमें नीच गोत्रकी. उदयव्युच्छित्ति हो जाती है तथापि बहुभाग आर्य मनुष्योंकी अपेक्षा उच्चगोत्रका उदय और बहुभाग म्लेच्छोंकी अपेक्षा नीच गोत्रका उदय मानना पडता है। राजवार्त्तिकमें नाऊ, धोबी, कुम्हार, को आर्यों में गिना है और लब्धिसार ग्रन्थमें सकलसंयम लब्धिको धारनेवाले स्वामियोंके भेदका निरूपण करते समयं “ तत्तो पडिवज्ज गया अज्जमिलेच्छे मिलेच्छ अजेय । कमसो अवरं अवरं वरं वरं होदि संखं वा " इस गाथाकी टीकामें यों लिखा है कि. " म्लेच्छभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं संभवतीति नाशंकितन्यं, दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां म्लेच्छराजानां चक्रवादिभिः सहजातवैवाहिकसम्बन्धानां संयमप्रतिपत्तेरविरोधात् अथवा तत्कान्यकानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषूत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छ व्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तथाजातीयकानां दीक्षार्हत्वे प्रतिषेधाभावात् " । म्लेच्छ भूमिमें उत्पन्न हुये मनुष्योंके सकल संयमका ग्रहण कैसे सम्भवता है ! यह आशंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि दिग्विजय करते समय चक्रवर्तीके साथ आर्यखण्डमें चले आये और चक्रवर्ती, मण्डलेश्वर, आदिके साथ जिनका वैवाहिक सम्बन्ध हो गया है, अपनी या उनकी कन्यायें ले लीं, दे दी, गई हैं, ऐसे म्लेच्छ राजाओंके संयमलब्धिकी प्राप्ति हो जानेका कोई विरोध नहीं है अथवा चक्रवर्ती आदिके साथ परिणाई गई कन्याओंके गर्भो में उत्पन्न हुये इन म्लेच्छ नामधारी मनुष्यों के सकलसंयम सम्भव जाता है । तिस प्रकारकी जातिवाले म्लेच्छ मनुष्योंकी दीक्षा योग्यतामें कोई प्रतिषेध नहीं है। सागारधर्मामृतमें " शूद्रोप्युपस्कराचार वपुःशुध्याऽस्तु तादृशः, जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक्" । लिखा है श्री समन्तभद्राचार्यने “ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम्, देवा देवं विदुर्भस्मगूढागारान्तरौजसम् ” यों
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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