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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अवस्था हैं । मनुष्य लोकका मनुष्य जीव बाहर जाकर मारणान्तिक समुद्घात या केवली समुद्घात करते हुये नृलोकसे बाहर भी चला जाता है । अन्यदा नहीं ।
न परतो यस्मादित्यभिसंबंधः । मनुष्यलोको हि प्रतिपादयितुमुपक्रांतः स चेयानेव ।
जिस मानुषोत्तर पर्वतसे परली ओर मनुष्य नहीं हैं, द्वीपोंमें केवल तिर्यंच ही पाये जाते हैं, उन द्वीपोंमें जघन्य भोगभूमिकीसी रचना है। हां, सबसे परली ओरका आधा द्वीप और पूरा स्वयम्भूरण समुद्र तथा त्रसनाली तक चारों कोने, यहां कर्मभूमि की रचना है । स्वयम्भूरमण द्वीप के उत्तरार्ध स्थल भागमें पांचवे गुणस्थानको धारने वाले भी असंख्याते तिर्यच यहां पाये जाते हैं। चूंकि इस प्रकरणमें मनुष्य लोककी प्रतिपत्ति कराने के लिये उपक्रम चलाया गया है। अतः वह मनुष्य लोक तो पुष्करार्ध द्वीपपर्यंत पैंतालीस लाख योजन परिमाणवाला इतना ही है ।
यद्येवं किंप्रकारा मनुष्यास्तत्रेत्याह ।
कोई प्रश्न करता है कि यदि इसी ढंगसे मनुष्य लोककी व्यवस्था है तो बताओ उस ढाई द्वीपमें रहनेवाले मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? ऐसी बुभुत्सा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं ।
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आर्या म्लेच्छाश्च ॥ ३७ ॥
आर्य और म्लेच्छयों दो प्रकारके मनुष्य हैं । भावार्थ – यद्यपि संमूर्च्छन मनुष्य भी इन पर्याप्त मनुष्योंसे असंख्यातें गुणे अधिक इस जगत् में हैं । तथापि भूमिपर गमन करनेवाले या आकाशमें उडनेवाले मनुष्योंकी अपेक्षा मानुषोत्तर पर्वतका उल्लंघन जो नहीं कर सकें ऐसे जीवोंकी विवक्षा अनुसार उक्त दो भेद ही मनुष्योंके किये हैं । संमूर्च्छन मनुष्य भी यदि देवों द्वारा पकड कर ले जाये जांय तो मानुषोत्तर पर्वतका उल्लंघन नहीं कर सकते हैं। संमूर्च्छन मनुष्य तो इन पर्याप्त मनुष्यों के आश्रित होकर ही ठहरते हैं । अतः आर्य खण्डमें उपजी हुई कतिपय स्त्रियोंके निरूपणके समान ये गतार्थ हो जाते हैं। वस्तुतः यह पर्याप्त मनुष्यों का ही सूत्रण है। जिस प्रकार बिजली के प्रवाह (करेन्ट) वाले तारको सर्वाङ्ग छूते हुये परली ओर मनुष्यका जाना नहीं हो सकता है, उसी प्रकार बलात्कारसे मानुषोत्तर के परली ओर जानेपर मनुष्य शरीर फट कर टूट फूटकर वहीं गिर पडेगा । आगे नहीं जा सकेगा ।
एतदेव प्ररूपयति ।
इस ही सूत्रकारके अभीष्ट सिद्धान्तको श्री विद्यानन्द स्वामी वार्त्तिक द्वारा कहे देते हैं । प्राद्मानुषोत्तराद्यस्मान्मनुष्याः परतच न ।
आर्या म्लेच्छाश्च ते ज्ञेयास्तादृकर्मबलोद्भवाः ॥ १