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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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जम्बूद्वीप प्राप्त हो रहे क्षेत्र, पर्वत, आदिकों की चौडाई आदिक तो परिपूर्ण रूपसे धातकी खण्ड और पुष्करार्ध द्वीपमें गणना द्वारा दो बार सदा नापी जाती है । वार्तिकमें पड़ा हुआ सदा रा तो जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड की उक्त रचनाओं को अनादिनिधन घोषित कर रहा है। शेष मध्यलोक या ऊर्ध्वलोक, अधोलोककी, रचनायें भी अनादि, अनन्त हैं ।
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एकेनैकेन सूत्रेणोक्तं यथोदितसूत्रवचनात् ।
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मध्यवर्ती छोटेसे जम्बूद्वीपका वर्णन पच्चीस सूत्रों द्वारा किया गया है । किन्तु “ बाहिरसूईवग्गं अब्बन्तरसूइवग्गपरिहीणं, जम्बूवासविभत्ते तत्तियमेत्ताणि खंडाणि इस नियम अनुसार जम्बूद्वीप से एक सौ चवालीस गुने धातकीखण्डका और जम्बूद्वीपसे ग्यारह सौ चौरासी गुने पुष्करार्ध द्वीपका निरूपण श्री उमास्वामी महाराजने एक एक सूत्र करके ही परिभाषित कर दिया है । अर्थात् नामके भूखे और शरीरसे बडे महाशय सदासे ही छोटे और मझले पदार्थोंके माल को हडप लेते चले आये हैं । इस लोकदक्ष स्वार्थी पुरुषोंकी नीति अनुसार जम्बूद्वीप के लिये महामना श्री उमास्वामी महाराज द्वारा दिये गये अमृतमय पच्चीस सूत्रोंके बहुभाग प्रमेयको बडे पेटवाले धातकीखन्ड और पुष्करार्ध द्वीपने भी झपट लिया है और अपने लिये प्राप्त हुये सूत्रों का बांट रत्तीभर भी इन्होंने किसीको नहीं दिया है । “संसृतौ व्यवहारस्तु न हि मायाविवर्जितः” । छोटों का न्याय बडे करें। किन्तु बड़ोंका न्याय फिर कौन करें। वे न्यायरहित ही बचे रहते हैं । सच बात तो यह है कि समुद्रका जलपिण्ड छोटी छोटी बूंदो द्वारा ही निष्पन्न हुआ है। लेोकमें बडप्पनकी स्पर्धा रखनेवाले पुरुषों को छोटे छोटे पुरुषोंने ही वैसा बडा दिया है प्रकरणमें यह कहना है कि यथायोग्य पूर्ववर्ती पच्चीस सूत्रों के निरूपणसे इन दो द्वीपों की ख्याति करनेमें बडे सहायता प्राप्त हो रही है ।
कस्मात् पुनः पुष्करार्धनिरूपणमेव कृतमित्याह ।
क्योंजी, फिर यह बताओ कि किस कारणसे पुष्कर द्वीपके आधेका ही निरूपण किया गया है। पूरे पुष्कर द्वीपमें क्यों नहीं भरत आदिकों की संख्या दूनी कही गयी है ? इस प्रकार जिज्ञा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रको कहते हैं ।
प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥ ३६ ॥
पुष्कर द्वीपके ठीक बीचमें पडे हुये मानुषोत्तर पर्वतसे पहिले पहिले ही मनुष्य हैं । मानुषो - त्तरके परली ओर मनुष्य नहीं हैं । अतः पुष्करार्धतक ही इस मनुष्य लोकसे मोक्षमार्ग व्यवस्था चालू रहती है । मानुषोत्तर पर्वतंसे परली ओरं विद्याधर या ऋद्धि प्राप्त मनुष्य भी सिवाय उपपाद और समु
द्घात अवस्था के बाहर नहीं पाये जा सकते हैं । तिर्यक्लोक या अधोलोक या ऊर्ध्वलोकसे आकर मनुष्य लोक में जन्म लेनेवाले जीवके विग्रह गतिमें पहिले समय मनुष्य आयुका उदय है । यह उपपाद