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________________ तत्त्वार्यलोकवार्तिक इनका आकार है । इनकी पांचसौ योजन चौडी भीतें और तल वज्रमय हैं । मध्यलोक सम्बन्धी सम्पूर्ण दृश्य, अखंड, अवयवी, पदार्थों से ये ही पाताल चित्रा पृथ्वीके नीचे तक चले गये हैं । वज्रा, वैडूर्य, यहांतक कि लोकके अन्त तक फैल रही रत्नप्रभाके सोलह हजार योजन मोटे पूरे खर पृथ्वीभाग और चौरासी हजार योजन मोटे पंकबहुलभागतक ये पाताल घुस गये हैं । उन महापातालोंके तिहाई नीचले तेतीस हजार तीनसौ तेतीस और एक बटे तीन योजन भागमें वायु भरा हुआ है | मझिले तीसरे भागमें वायु और जल ठस रहे हैं । ऊपरले त्रिभागमें जल है। कतिपय निमित्तों द्वारा वायुका संक्षोभ हो जानेसे समुद्र जलकी वृद्धि हो जाती है । इन चार महा पातालोंके ठीक मध्य विदिशाओंमें चार क्षुद्र पाताल दश हजार योजन गहरे अन्य भी हैं । जो कि मुख और मूलमें हजार योजन तथा मध्यमें दश हजार योजन चौडे हो रहे मुरज समान हैं । इनमें भी निचले त्रिभागमें वायु और बिचले त्रिभागमें जल, वायु मिलकर दोनों तथा उपरिम त्रिभागमें केवल जल भर रहे हैं । उन दिशा, विदिशाओंमें बन रहे पातालोंके आठों अन्तरोंमें हजार योजन गहराईको धार रहे अति क्षुद्र पातालोंकी सहस्र संख्या और भी समझ लेनी चाहिये । इन हजार पातालों ( बडवानलों ) की मध्यमें चौडाई हजार योजन और मुख या मूलमें पांचसौ योजन चौडाई है । इनके तीन त्रिभागोंमें भी यथाक्रम नीचेकी ओरसे वात और जल, वायु, तथा जल भर रहे हैं । जो कि समुद्रके जलकी वृद्धि या हानिमें सहायक हैं । ये सम्पूर्ण पाताल अनादि अनिधन हैं। दिक्षु वेलंधरनागाधिपतिनगराणि चत्वारि द्वादशयोजनसहस्रायामविष्कंभो गौतमद्वीपश्चेति श्रूयते । ___ जम्बूद्वीपके अन्तिम भाग हो रही रत्नवेदिकासे तिरछे वियालीस हजार योजन चलकर चारों दिशाओंमें समुद्रकी वेलाको धारनेवाले नागकुमाराधिपति भवनवासी देवोंके चार नगर बने हुये हैं। जिनमें निवास करनेवाले हजारों भवनवासी देव स्वकीय नियोग अनुसार लवणसमुद्रकी अभ्यन्तर वेला, बाह्यवेला, और 'अग्रजलको वहांका वहीं नियत स्थानोंपर रोक कर धार रहे हैं। उचित हानि, या वृद्धिके सिवाय उठे हुये जलको इधर उधर नहीं गिरने, फैलने, उछलने देते हैं । यद्यपि निश्चयनय अनुसार सभी पदार्थ अपने अपने स्वरूपको धार रहे हैं । जलकी बूंद या कटोराका पानी यों भी कुछ ऊपर उठा हुआ रह सकता है। तथापि व्यवहार नय अनुसार कतिपय बादर पदार्थोके अवलम्ब हो रहे यथा व्यवस्थित पदार्थोंका आचार्य महाराजने निरूपण कर दिया है। रत्नवेदिकासे तिरछे बारह हजार योजन चलकर बारह हजार योजन लंबा चौडा गोल " गौतम " नामका द्वीप लवणसमुद्रमें विद्यमान है, जिसमें लवणसमुद्रके अधिपति गौतम देवका निवास है । लवण समुद्रके तटसे पिचानबै हजार योजन चलकर समुद्रकी गहराई हजार योजन होगई है। अतः पिचानबै प्रदेशोंपर एक प्रदेश गहरा, पिचानबै हाथ चलकर एक हाथ गहरा, पिचानबै कोस तिरछा चलकर एक कोस गहरा, इस क्रमसे समुद्र की गहराई मिलती चली जायगी। नीचे जाकर मध्यमें दश हजारकी चौडाईपर
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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